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अगर तुम चार हो और आम दो, तो भी उसे मिल-बाँटकर खाइए। अपना हिस्सा स्वार्थवश अपने पास मत रखो । स्वार्थ ही सबसे बड़ा पाप है और स्वार्थ का त्याग कर देना ही पुण्य है। मेरे लिए तो स्वार्थ ही अधर्म
और नि:स्वार्थी होना धर्म है। जब से मैंने अपने स्वार्थों का त्याग कर दिया है तब से ईश्वर के घर से मेरे लिए हर तरह की पुख्ता व्यवस्था होने लग गई है। तुम उसके लिए अपने स्वार्थों का त्याग करके देखो तो सही, वह तुम्हारे भंडार कैसे भरता है। मेरा मेरे पास कुछ नहीं है। जो कुछ है सब उसका है। मैं भी उसका हूँ, उसके लिए हूँ। मेरे द्वारा यह जो कुछ बोला जा रहा है वह भी मेरा नहीं है। यह भी उसका ही है। मेरे लिए उसके अलावा कुछ है ही नहीं। जो लोग ईश्वर के होने और न होने के बारे में कोरे तर्क करते रहते हैं, मेरा उनसे अनुरोध है कि जितनी शक्ति आप उसे साबित करने और न साबित करने के बारे में लगाते हैं, काश उसकी आधी शक्ति भी ईश्वरीय तत्त्व में डूबने में लगाते । आप सचमुच धन्य हो चुके होते।
सोच को बेहतर बनाने के लिए अपनी व्यग्रता और उत्तेजनाओं का त्याग कीजिए। व्यग्रता के क्षणों में सोचना ग़लत निर्णायक होता है। आप घर पहुँचे, पत्नी ने माँ के बारे में आपसे शिकायत की। आप व्यग्र हो गए और माँ को अपशब्द कह दिए। नहीं, ऐसा न करें। वह आपकी माँ हैं अत: उसका पक्ष भी सुना जाना चाहिए। दोनों की बात सुनकर जब आप निर्णय लेंगे तो वह सही निर्णय होगा। व्यग्रता में उठाया गया क़दम आपको नुकसान भी पहुँचा सकता है । क़दम जब भी उठे, धैर्य और शांति में ही उठना चाहिए।
___ ध्यान रखिए – कभी किसी के दुर्गुण मत देखिए। अगर दूसरे की ओर एक अँगुली उठाओगे तो ध्यान रखना तीन तो तुम्हारी ओर ही हैं। अगर हम दूसरों के अवगुण ही देखते रहेंगे तो कभी भी उनके गुणों का उपयोग नहीं कर पाएँगे। कोई भी दूध का धुला नहीं है फिर भी हमें अच्छाइयों की ओर ही दृष्टि डालनी है। किसी में कमी है तो वह जाने, उसमें कोई दुर्गुण है तो वह जिम्मेदार है, लेकिन एक दुर्गुण या अवगुण के कारण उसकी शेष अच्छाइयों को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता।
याद है न्, जब युधिष्ठिर और दुर्योधन से नगर में रहने वाले बुरे लोगों की सूची बनाने को कहा गया तो दुर्योधन ढाई सौ लोगों के नाम लिख लाया और युधिष्ठिर की सूची में एक ही नाम था और वह भी खुद का। तभी तो कबीर ने कहा है -
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल देखा आपना, मुझसे बुरा न कोय॥ अपनी ओर से कभी किसी की आलोचना मत कीजिए, पर यदि कोई दूसरा आपकी आलोचना कर दे तो इतना बुरा भी मत मानिए। वैसे भी गली में दो-चार सूअर होने ही चाहिए। गली की सफाई ठीक से हो जाती है। आप तो वह फूल बनिए जो काँटों से बिंधकर भी दूसरों को अपनी ख़ुशबू दे। सभी के साथ विनम्रता, सहजता, सरलता से पेश आएँ। अपने भीतर अकड़ न रखें।
LIFE 129
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