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जीवन का दर्पण है। कुछ लोग तो अपने शत्रु के प्रति भी सौम्य व्यवहार करने में सफल हो जाते हैं, पर कुछ लोग अपने मित्र के साथ भी दुश्मनों जैसा व्यवहार कर डालते हैं । महान लोग शत्रु के साथ भी महान व्यवहार करते हैं जबकि हल्के लोग दोस्त के साथ भी हल्का व्यवहार किया करते हैं । महानता व्यक्ति के व्यवहार से झलकती है। जो सबके साथ सलीके से पेश आता है, सभी से सम्मानजनक भाषा का प्रयोग करता है, मित्रों के साथ भी सहजतापूर्ण व्यवहार करता है वह सदा महान व्यक्तित्व का स्वामी होता है।
किसी की भी लोकप्रियता का राज़ उसका सौम्य व्यवहार है। मुझे याद है – एक नेत्रहीन व्यक्ति नगर में किसी चौराहे पर भिक्षापात्र लिए बैठा रहता था। राहगीर जो भी उसमें डाल देते उसी से जीवन-यापन कर लेता था। एक दिन की बात है कुछ सैनिक जो घोड़े पर सवार थे उधर से निकले और उसे संबोधित करते हुए
आगेवान था उसने कहा, 'अरे ओ अंधे. तने इधर से किसी को जाते हए देखा।''हाँ सेनापति मैंने किन्हीं दुश्मनों को इधर से जाते हुए महसूस किया है' – उस नेत्रहीन ने कहा। सेनापति अपनी टुकड़ी को लेकर आगे बढ़ गया, पर उसे आश्चर्य हुआ कि उस नेत्रहीन व्यक्ति ने कैसे पहचाना कि मैं सेनापति हूँ। थोड़ा समय बीता कि कुछ घुड़सवार और आए। उनमें से एक ने पूछा, 'अरे भाई सूरदास, क्या तुमने किसी को इधर से निकलते हुए देखा?' 'महामंत्री, मैंने अभी-अभी सेनापति और उसकी टुकड़ी को जाते हुए महसूस किया है' - नेत्रहीन ने कहा। महामंत्री ने भी सोचा कि आख़िर यह कैसे जान गया कि वह महामंत्री है, पर बगैर कोई टिप्पणी किये वह आगे चला गया। कुछ देर बार उधर से एक रथ निकला, वह रथ भी चौराहे पर रुका और उसमें सवार व्यक्ति ने उस नेत्रहीन से पूछा, 'हे प्रज्ञाचक्षु, हे महात्मन् ! क्या आपने इधर से किसी को जाते हुए अनुभव किया है ?' उस नेत्रहीन ने कहा, 'हाँ राजन्, अभी-अभी मैंने इधर से प्रधानमंत्री को जाते हुए अनुभव किया है। तीनों आगे बढ़ गये।
वे लोग जिस काम के लिए गए थे उसे करके जब वापस लौटे तो उसी चौराहे पर आकर खड़े हुए और आपस में चर्चा करने लगे कि आख़िर ऐसी क्या बात रही कि उस नेत्रहीन व्यक्ति ने ठीक-ठाक पहचान लिया कि कौन सेनापति है, कौन महामंत्री और कौन राजा है। उन्होंने यही बात उससे भी पूछी। तब नेत्रहीन ने कहा, 'महाराज, आप लोगों के अलग-अलग व्यवहार ने, आप लोगों द्वारा मुझे दिया गया सम्बोधन, निकलते हुए घोड़ों के टापों की आवाज़, इन्हीं के आधार पर मैंने पहचाना। जिसने मुझे अंधा कहा - मैं समझ गया कि यह अपने सारे सैनिकों को इसी तरह कड़क भाषा का प्रयोग करने का आदि होगा, यह सेनापति है। जिसने मुझे सूरदास कहकर संबोधित किया वह थोड़ा विनम्र है, वह न्यायालय या राजसभा में बैठकर किस तरह न्याय और सभासदों का संचालन करना है, यह जानता है इसलिए मैंने उसे प्रधानमंत्री कहकर संबोधित किया। और महाराज, रथ पर गुज़रते हुए आपको महसूस किया। आपने मुझे प्रज्ञाचक्षु और महात्मन् कहा, 'तुम' की बजाय 'आप' कहा-ऐसा व्यक्ति निश्चित रूप से इस नगर का राजा ही हो सकता है।
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