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अपने ' श्रोता' का इंतजार कर रहा था। आप लोग तो आग लगते ही प्रवचन छोड़ भागे। मैं तो आपको आत्मतत्त्व से 'साक्षात् ' करवा रहा था, मगर आप दुनियादारी की चीजों को बचाने दौड़ पड़े। मैं तो अनश्वरता का पाठ पढ़ा रहा था, और आप नश्वर को बचाने दौड़े। जिसे आप बचाने दौड़े वह तो एक दिन नष्ट होना ही था । बताइये, सच्चा श्रोता कौन है, राजा या आप ?' लोगों के सिर झुक गए।
इसलिए कहता हूँ कि आपने जो ये बेकार के आसक्ति-भाव पाल रखे हैं, उन्हें अपने से अलग करो। क्या आपने कभी सोचा है कि संत पहाड़ों पर साधना करने क्यों जाते थे ? इसलिए कि वहाँ जाकर वे अपनी आसक्ति, सम्मोहन को छोड़ सकें । यहाँ तो चारों तरफ सम्मोहन का संसार बसा हुआ है। मोक्ष पाने की पहली शर्त यही है कि आसक्ति अथवा सम्मोहन को धीरे-धीरे कम करो। इनसे हमारे जो प्रगाढ़ सम्बन्ध गए हैं, उन्हें हल्का करने की कोशिश करो । आसक्ति खत्म करो ।
मनुष्य ने अपना जीवन अभिमन्यु की तरह बना लिया है। वह संसारचक्र में फँसता जा रहा है। इस चक्र से निकलना उसके बस का रोग नहीं है। इसका कारण यह है कि वह आधे-अधूरे ज्ञान के साथ इस चक्र में प्रवेश करता है और जो व्यक्ति इस चक्र से निकलने में कामयाब हो जाता है, दुनिया उसे ही महावीर और बुद्ध कहती । लेकिन सारी दुनिया अभिमन्यु की तरह चक्र में फँसती जा रही है। हमारे सम्मोहन ही ऐसे हैं ।
क्या कभी आपने आत्मचिंतन किया कि आपने अपने मकान की छत पर कितना कचरा डाल रखा है ? पुरानी बोतलें, डिब्बे एकत्र कर रखे हैं। भला इनका क्या करोगे, यह भी आप नहीं सोच पाते। जड़ पदार्थों से ऐसा सम्मोहन किस काम का ? हमारा सम्बन्ध भगवान के प्रति हो तब तो चिंता नहीं, मगर हम तो जड़ पदार्थ, पुद्गल पदार्थ के कचरे के प्रति सम्मोहन रखते हैं ।
व्यक्ति का सम्मोहन अपने माँ-बाप के प्रति, पुत्र के प्रति, पत्नी के प्रति हो तो भी समझ में आता है लेकिन हम तो कचरे की तरफ भागते हैं। और यह दौड़ कभी खत्म नहीं होती। महावीर अनासक्त योग की बात करते हैं । आसक्ति ही ' संसार' का दूसरा नाम है और अनासक्ति 'परीत संसार' का दूसरा नाम है। इसलिए साधक के लिए जरूरी है कि वह अपनी आसक्तियों के दायरे को कम करे। जिसने जीवन भर नोट की गड्डियां गिनी हो, वह मरते समय भी नोटों की गड्डियाँ गिनता रहेगा। उसकी आँख तब भी नहीं खुलेगी और प्राण पखेरू उड़ जाएँगे ।
मृत्यु तो परीक्षा है । जीवन भर कुछ नहीं पढ़ा तो अंत समय में तो अनुत्तीर्ण होना ही है। जीवन की स्कूल आपको एक अवसर देती है कि आप अपने को पढ़ लें, मगर आदमी भीतर की यात्रा शुरू नहीं कर पाता । जो व्यक्ति जीवन से कुछ नहीं पा सका, वह मृत्यु से क्या पाएगा? जो आदमी जितनी गहरी आसक्ति में जीता है, उसकी मृत्यु भी उतनी ही गहरी आसक्ति में होती है।
जीवन भर कपड़े मापने काटने वाला व्यक्ति अंत समय भी कपड़े काटता ही नजर आएगा। वह उस अंतिम घड़ी में भी प्रभु-स्मरण न कर पाएगा। मैंने लोगों के कई तरह के अनुभव सुनकर ऐसी धारणा बनाली है। कोई कहता है कि मेरे पिताजी बड़े बेटे को याद करते-करते चले गए। बड़ा बेटा उनकी मृत्यु के समय विदेश में था । प्रायः हर व्यक्ति मरते समय अपने सम्बन्धियों के बारे में पूछता है । मेरा बेटा कहाँ है, मेरी पत्नी कहाँ है ?
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