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धर्म और अध्यात्म में भी हमें सम्यग्दृष्टि रखनी होगी। और अगर यह दृष्टि न रही तो धर्म की मूल आत्मा खो जाएगी। दान देना अच्छा है । वह धर्म और मानवता का आवश्यक और पहला धर्म है, पर धर्म और समाज की कसौटी पर दान का भी अलग-अलग मल्यांकन होना चाहिये। उसका महत्त्व मात्र इस बात पर नहीं होना चाहिये कि किसी ने लाख का दान दिया है तो महत्त्वपूर्ण हो गया और किसी ने हजार का दिया है तो वह गौण बन गया। दान का महत्त्व मात्र वित्तीय नहीं अपितु नैतिक दृष्टि से आंका जाना चाहिये। दान अधिक है या कम, इसका महत्त्व नहीं होना चाहिये। हाँ, चित्त की चेतना कैसी है, यह खास बात है। किसी भय, आतंक, कुछ पाने की लालसा, यश-कामना से दिया गया अथवा प्रतिस्पर्धा से दिये गये विपुल दान की अपेक्षा निष्काम, निरहंकार चित्त से दिया गया आंशिक दान भी श्रेष्ठ है। उपवास और तपस्या जीवन में आवश्यक है। इनसे शरीर स्वस्थ होता है और मन संयमित । पर मन में
हे. तो उपवास हीन कोटि का हो जाता है। उपवास करने वाला अगर शील-सदाचार से हीन है. तो उसका उपवास भला किस काम का? धर्म, व्रत, तपस्या इन सबका सम्बन्ध मात्र बाह्य ही तो नहीं है। व्रततपस्या वास्तव में मन को संयमित, निग्रहित और सबल करने के लिए है।
अगर हम माला को ही लें तो माला मात्र यन्त्रवत् एक अभ्यास बनकर रह गयी है। जब दिन भर में बीस मालाएँ गिननी हैं तो आदमी का ध्यान मंत्र के प्रति नहीं अपितु मात्र संख्या के प्रति अटक जाएगा। चाहे मंत्र गलत बोला जा रहा है, इसकी उसे परवाह नहीं पर बीस मालाएँ पूरी गिन ली जायँ। मंत्र का उपयोग मन को एकाग्र करने के लिए था जबकि हमने उसे केवल संख्या से जोड़ दिया। अब लोग सवा करोड़ मंत्र का अखण्ड जाप करवाते हैं। उन्हें कहो कि मात्र संख्या से ही जुड़े रहे तो सवा करोड़ नहीं बल्कि सवा अरब दफा भी जाप करा लोगे तब भी हाथ कुछ नहीं लग पाएगा!
एक नवकार मंत्र के जाप से ही अमर कुमार की शूली सिंहासन में बदल गयी और हम संख्या के फेर में व्यर्थ ही भटक रहे हैं । विचारणीय है कि आखिर ऐसा क्यों होता है ? हम मंत्र की आत्मा को न समझ पाये, या संख्याओं पर टिक गये। णमो अरिहंताणं' तो अब तक लाखों दफा जप लिया पर अपने अन्तर में अरिहंत की
वतरित न कर पाये। हमने माला को तो इतना सस्ता बना लिया है कि जब समय मिले तब माला। कुछ औरतें तो प्रवचन सुनते-सुनते ही मालाएँ गिन लेंगी। अब मज़े की बात यह है कि उन्होंने प्रवचन सुनना भी पुण्यकारक मान लिया है। उनके दिमाग में यह बात घर कर गयी है कि प्रवचन सुनने से पुण्य होता है, माला जपने से पुण्य होता है। अब जब पुण्य के लिए ही प्रवचन सुनना है, तो यह बात गौण हो जाती है कि प्रवचन कान के भीतर भी जा रहा है या नहीं। एक घंटे में कितने पुण्य एक साथ कमाने की कोशिश चलती है, प्रवचन सुन लेंगे, इसी दौरान सामायिक कर लेंगे और प्रवचन सुनते-सुनते ही माला भी जप लेंगे और नींद लेंगे सो अलग।
मेरे प्रभु! धर्म को इतना रूढ तो मत बनाओ। प्रवचन सनने से पुण्य नहीं होगा। हाँ, सनकर जीवन रूपांतरण करने से कल्याण अवश्य होगा, जो शायद न करने की हमने कसम-सी खा रखी है। बस एक रूढ़ परम्परा चल रही है और उसी का परिणाम इन प्रवचनों की प्रभावनाएँ। अब तो प्रवचनों के बाद सिक्के बांटने,
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