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________________ से ज्यादा है। अपने अन्तर्-अस्तित्व का साक्षात् करने के बाद जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह हमारे अन्तर-बाह्य व्यक्तित्व को स्वर्णिम प्रकाश से भर देता है। मुक्ति का मार्ग मात्र आचरण से नहीं अपितु प्रज्ञा के जागरण से प्रारम्भ होता है। इसलिए हम धार्मिक होने अथवा कहलाने से पूर्व अपने अन्तर्-बोध को जगाने का प्रयास करें। आज हमने मास-क्षमण किया। कल उपवास से पूर्व हमने पत्नी पर क्रोध किया क्योंकि दाल में नमक ज्यादा पड़ गया था और आज उपवास के बाद जब खाना खाने बैठे तो फिर वही रोना। आज आपको मनपसंद सब्जी न मिली, इसलिए आपके मिर्चे लग गई और फिर पत्नी ! बेचारी की शामत आ गई। ऐसे उपवास का अर्थ ही क्या रहा? हम यदि एक-दूसरे के प्रति आत्मीयता का भाव रखकर जी लें तो समझिये, स्वर्ग में ही जी रहे हैं। आदमी वैर-वैमनस्य के भाव रखता है तो नरक भी यहीं है। यह मत सोचिये कि मरने के बाद ही कोई स्वर्गनरक मिलेंगे। जैसा काम, वैसा दाम, स्वर्ग-नरक यहीं हैं । मरने के बाद स्वर्ग-नरक पाना अलग बात है। स्वर्ग सौन्दर्य और सुगंध का प्रतीक है। अब हमें यह चिंतन करना है कि हमारे कर्म कैसे हैं, जिनके कारण हमें स्वर्ग मिल रहा है या नरक । एक गरीब आदमी भी स्वर्ग में रह सकता है और एक अमीर आदमी भी नरक में जी सकता है। आदमी कोठी में रहता है, पैसे भी खूब है तो वह समझता है कि वह स्वर्ग में रह रहा है, मगर उसके क्रियाकलाप देखोगे, तो पता लगेगा कि वह नरक में ही जी रहा है। बाहर से तो प्रेम, अहिंसा की बातें करते हो, मगर भीतर नरक को जीवित रखते हो। यह जीवन का दोहरापन नहीं तो और क्या है ? महावीर ने इसीलिए तो कहा था कि ज्ञान और चरित्र तो अपनी-अपनी जगह है अतः पहले अपने दर्शन को पवित्र करो। हम लोगों ने गलत रास्ता पकड लिया है। हम पहले चरित्र का पालन करते हैं, फिर ज्ञान और कम पर दर्शन को विशुद्ध करते हैं। महावीर ने कहा था कि सबसे पहले दर्शन पर ध्यान दो, फिर ज्ञान ओ। इनके बाद चरित्र तो अपने आप सध जाएगा। आगे चल कर चरित्र से तप में प्रवेश करो। हम तो सबसे पहले तपस्या करने बैठ जाते हैं। जरा सोचो, भीतर से सफाई किए बिना तपस्या क्या अर्थमूलक होगी? जहर सने पात्र में कभी अमृत की बूंदें क्या अपना अस्तित्व बचा पाती हैं ? ___ महावीर दर्शन से यात्रा प्रारंभ करना चाहते हैं । दर्शन की विशुद्धि यानी भीतर का कचरा निकालने का प्रयत्न। अगर भीतर का कचरा बाहर नहीं निकला, तो भीतर की सफाई कैसे होगी? आपने अपने प्याले में जहर भर रखा है। अब इस प्याले में अमृत भरना चाहते हैं, तो पहले जहर को खाली करना ही होगा। अन्यथा अमृत भी भीतर जाकर जहर बन जाएगा। जब तक भीतर का कचरा साफ नहीं होगा, ऊपर से भले ही कितना ही ज्ञान प्राप्त कर लो, उपाधियाँ ले लो, सब बेकार हैं। भीतर कचरा भरा रहेगा तो ऊपर लीपापोती होती रहेगी। भीतर रूपांतरण नहीं हो पाएगा। आज आवश्यकता है कि हम धर्म का सही मूल्यांकन करना सीखें । सम्यग्दृष्टि वह है जो सत् को सत् और असत् को असत् रूप में निहारती है। जिसका जितना महत्त्व है, उसे उतना ही महत्त्व दिया जाना चाहिये। पत्थर-नगीना, काँच-हीरा सबका महत्त्व है, पर अलग-अलग। अगर काँच और हीरे को एक जैसी चमक होने के कारण एक श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया तो अनर्थ हो जाएगा। फिर तो 'टके सेर भाजी, टके सेर खाजा' वाला अनर्थकारी मूल्यांकन हो जाएगा। 54 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003859
Book TitleAdhyatma ka Amrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2010
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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