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अगर जीवन को सहज रूप से स्वीकार नहीं करोगे, तो सब कुछ पाकर भी कुछ न पा सकोगे। जो मिला, जैसा मिला, अच्छा मिला, इसमें भला, कैसा गिला!'
यह संसार तो इतना विचित्र है कि यहाँ सब कुछ पाकर भी कुछ हाथ नहीं लगेगा। यहाँ जीतकर भी जीत कहाँ पाओगे! जीत भी हार की सीढियाँ बन जाएँगी। लेकिन अगर जीतने की तमन्ना ही खत्म हो गयी, तो फिर कभी हार नहीं पाओगे। हार की संभावना तभी तक है जब तक विजय की तमन्ना है।
कहते हैं, लाओत्से एक बात सभी को कहा करते थे कि मुझे कोई हरा नहीं सकता। एक पहलवान ने भी यह बात सुनी । वह थोड़ा हैरान हुआ। लाओत्से शरीर से इतने बलिष्ठ तो नहीं हैं, फिर ऐसी बात कैसे कह रहे हैं?' वह लाओत्से के पास गया और कहा, लाओत्से ! तुम कहते हो कि मुझे कोई हरा नहीं सकता, पर तुम्हारे शरीर को देखकर तो ऐसा लगता है कि हर कोई हरा देगा तुम्हें । और अगर मैं चाहूँ तो तुम्हें चित करने में मुझे दो पल भी न लगेंगे।'
लोओत्से हँसे और बोले. 'मैं तमसे अब भी कहता हूँ कि मझे कोई हरा नहीं सकता। तम भी हरा नहीं पाओगे। हारेगा वह, जिसके मन में जीतने की इच्छा है। तुम मुझे चित करोगे उसके पहले मैं खुद ही चित हो जाऊँगा। मैं पहले से ही हारा हूँ, तुम मुझे क्या हराओगे!'चाह गई चिन्ता मिटी मनुवा बेपरवाह।'
जिसकी चाह मिट गई, वह तो शहंशाह है। जो यह सोचते हैं कि चाह पूरी करने से चाहें अथवा आकांक्षाएँ मिट जाएँगी, वे भ्रमित हैं।
खेद वहाँ होता है जहाँ आकांक्षाओं की पूर्ति न हो। जब आकांक्षाएँ ही नहीं जन्मेंगी तो खेद कहाँ होगा? यह हमारी भ्रान्ति है कि सब पा लेने से तृप्ति आ जायेगी। अगर पूरे विश्व का साम्राज्य भी तुम्हें मिल जाये तो भी कुछ और पाने की लालसा शेष बचेगी। दिखने में तो आकाश जमीन से छूता हुआ मालूम होता है पर क्या वह उसे छू पाता है ? दिखने में तो ऐसा लगता है कि पर्वत के पीछे आकाश का अन्त है, पर ऐसे एक नहीं अनन्त क्षितिज पार कर लेना पर क्षितिजों का अन्त न पा सकोगे। वर्तुलाकार है क्षितिज और हमारी वासनाएँ भी वर्तुलाकार ही हैं। और जिसे हम पाना चाहते हैं, जहाँ जाना चाहते हैं, उससे आगे भी और लोग गये हुए हैं। उनसे जरा पूछो उनके जीवन की आपाधापी की कहानी, अन्तरमन की समस्याएँ । वे तुम जैसी ही हैं, शायद तुमसे भी ज्यादा।
जब सारी दुनिया दौड़ रही है तो हमें समझ लेना चाहिये कि जिनमें थोड़ा भी विवेक है कि आकाश कभी पृथ्वी को छूता नहीं है । वे यह भी जान लें कि वासना कभी तृप्त नहीं होती।
प्रबल इच्छाओं के चलते व्यक्ति प्राप्त का उपयोग नहीं कर पाता और जो प्राप्त नहीं हुआ, उसकी चिंता में दुःखी बना रहता है। एक आदमी ने इस वर्ष पांच लाख रुपये कमाए तो उसे इसकी खुशी नहीं है। उसे ग़म इस बात का है कि पिछले वर्ष तो दस लाख कमाए थे किन्तु इस बार पांच लाख ही कमा सका। जीवन में मनुष्य कई तरह की एषणाओं-इच्छाओं की पूर्ति में लगा रहता है। उनमें पद, पूंजी और प्रतिष्ठा की एषणाएँ गजब की हैं। इन्हें प्राप्त करने की आपाधापी में उसका जीवन समाप्त हो जाता है। आदमी पद की चाह के लिए क्या-क्या नहीं
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