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________________ भीतर जल उठी हैं कि जीवन की कोई सुखद अर्थवत्ता ही शेष नहीं बची है । एक बात हमेशा ध्यान में रखें कि इस दुनिया में वे ही लोग कुछ पा सकते हैं, जो निर्लोभी हैं। धन का संचय करके भविष्य में सुख पा सकोगे या नहीं, पर उपयोग करके आज तो सुख पा सकते हो। कहते हैं, सिकन्दर ने काफी उम्र पायी थी। जितनी उम्र पायी उससे हजार गुनी इच्छाएँ पायी होंगी। सिकन्दर जब विश्व - विजय के अभियान पर था तो संत डायोजनीज ने उससे पूछा—'सिकन्दर, तुम सारे संसार को जीतकर क्या करोगे ?' सिकन्दर ने कहा, ‘आराम की रोटी खाऊँगा ।' डायोजनीज ने मुस्कराकर कहा, 'रोटी की कमी तो आज भी तुम्हारे लिए नहीं है । हाँ, जितनी आराम से रोटी तुम आज खा पाओगे, जितनी चैन की नींद आज सो सकते हो, उतनी चैन की नींद तब नहीं सो पाओगे।' जीवन-विस्तार के नाम पर जितने आकांक्षाओं में डूबोगे, जीवन उतना ही हाथ से छिटकता जायेगा । इसलिए जो अनायास मिल रहा है, उसे सप्रेम स्वीकार करो। आज जितनी तुम्हारी व्यवस्था है उसे अपनाओ। जिसने आज की व्यवस्था की, वह कल के आने पर कल की भी व्यवस्था स्वत: कर देगा । जब अनमोल जीवन मिला है, तो फिर जड़ पदार्थों को पाने में उसका दुरुपयोग क्यों कर रहे हो? तुम्हें प्रकृति से एक सुन्दर तन मिला है। धन-सम्पत्ति और पद-प्रतिष्ठा की मूल्यवत्ता आखिर कितनी ! क्या जीवन से भी ज्यादा मूल्यवान हैं वे सब, जो इनके पीछे जीवन गँवा रहे हो । अगर सारी दुनिया का साम्राज्य तुम्हारे अधिकार में है तो उसे एक ओर तराजू पर रखकर दूसरी ओर अपने जीवन को रख दो। सारा संसार का साम्राज्य भी शायद जीवन की बराबरी नहीं कर पायेगा । मृत्यु के समय सिंकदर अपने जीवन को कुछ वक्त के लिए और बढ़ाना चाहता था और उसने उसके लिए अपना पूरा साम्राज्य देने तक की घोषणा कर दी, पर क्या उसका वह अपार साम्राज्य उसे और अधिक जीवन दे पाया ? जीवन के सामने साम्राज्य को मात खानी पड़ी। आखिर क्या काम का वह अपार वैभव भी जो हमारी सांध्य वेला में हमारे सामने ही प्रश्नचिह्न बनकर खड़ा हो जाये। आखिर यह सब कुछ किसलिए है? अपने बाह्य वैभव को बढ़ाने की बजाय भीतर के वैभव पर नज़र डालो। कहीं ऐसा तो नहीं है कि तुम बाहर सब कुछ पाते जा रहे हो, जो नश्वर है और भीतर का वह सब कुछ खोते जा रहे हो जो अनश्वर है । अनश्वर को खोकर अगर नश्वर कुछ पा भी लिया तो क्या पाया ? अब अपने मन पर अंकुश डालो । नियन्त्रण करो स्वयं पर । इच्छाओं को सीमाओं का पाठ पढ़ाओ। बहुत पा लिये जो पाना था। अब इसीमें थोड़े ही रमे रहेंगे। जीवन में इसके अतिरिक्त भी कुछ और है। सब तुम पर निर्भर है । जीवन को जैसा चाहो, मोड़ सकते हो । दुनिया की आपाधापी में भी जीवन को झोंक सकते हो और प्रकृति के सहारे भी छोड़ सकते हो। बाहर में जो टटोलने की वृत्ति बनी हुई है, उसे अन्तर्मुखी बना लो। बाहर की तलाश अन्तहीन है और उसमें शायद ही ऐसा कुछ मिल पाये, जिसे जीवन की उपलब्धि कह सको। पर अगर भीतर को उपलब्ध हो गये, जिसने स्वयं के अस्तित्व का बोध पा लिया, वह सबके साथ एकमेक हो जाता है । संसार को पाने की लालसा उसके भीतर नहीं पलती वरन् सारा संसार ही उसका हो जाता है । 'वसुधैव कुटुम्बकम्', पृथ्वी ही उसका परिवार बन जाती है । Jain Education International For Person30. Private Use Only: www.jalnelibrary.org
SR No.003859
Book TitleAdhyatma ka Amrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2010
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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