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का संसार है और यह बेहोशी निरंतर फैलती जा रही है। हमें इस बेहोशी को समाप्त कर होश में आना है। अन्तर मन में पलने वाली बेहोशी को छोड़ना ही जीवन में जागरूकता का शंखनाद करना है।
बेहोशी दूर करके हमने बोधि को जगा लिया तो हमारा हर सत्कर्म' होगा।आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि एक व्यक्ति ऐसा है जो अयतन से सारे कृत्य करता है और दूसरा हर काम यत्न से, जतन से करता है। अयतनाचारी हिंसा न करते हुए भी हिंसक हो जाता है और यतनाचारी हिंसा करते हुए भी अहिंसक हो सकता है, क्योंकि हिंसा और अहिंसा का सम्बन्ध व्यक्ति की जागरूकता के साथ है। यदि आप यत्न, विवेक और सजगता से जी रहे हैं तो आप जो कुछ कर रहे हैं, वह सत्कर्म है। फिर यह बात गौण है कि हम क्या कर रहे हैं?
जीवन तो हर आदमी जीता है। हम जी रहे हैं, यह बात महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि हम किस तरह जी रहे हैं, इस पर ध्यान देना जरूरी है। जीवन की तीन अवस्थाएँ हैं- जाग्रतावस्था. सप्तावस्था और स्वप्नावस्था । हमें तो जाग्रतावस्था में जीना है। अधिकांश लोग स्वप्न में जीते हैं। उनका परा जीवन स्वप्नावस्था में ही बीत जाता है। जब तक हम उन सपनों से अपने आप को मुक्त नहीं करेंगे, हम संसार की भूल-भुलैया में ही उलझे रहेंगे।
स्वप्न भी बड़ी अजीब चीज है। आँखें बंद, नींद में आदमी गाफिल, मगर न जाने कहाँ-कहाँ की यात्रा कर आता है ? ऐसी-ऐसी घटनाएँ देख लेता है, जिनका कोई सिर पैर नहीं होता। जो काम आदमी जाग्रतावस्था में पूरे नहीं कर पाता, उन्हें स्वप्नों में पूरा करता है। यह बात नहीं है कि आदमी अच्छे स्वप्न ही देखता है, उसे बुरेडरावने स्वप्न भी आते हैं । ये वे स्वप्न होते हैं, जिनका सम्बन्ध हमारी कुत्सित भावनाओं से होता है। दिन के उजाले में तो हम उनका इज़हार नहीं कर सकते, मगर रात्रि में उन्हें स्वप्नों में देखकर हम आनन्द की अनुभूति करते हैं।
कोई आदमी कायर है और उसे लड़ाई-झगड़े से डर लगता है, वह किसी से पिट कर आ जाएगा, लेकिन स्वप्नों में उसकी सोयी इच्छाएँ जाग उठेगी। उसे ऐसा लगेगा जैसे वह बहुत बलवान है और दिन में जिससे पिट कर आया था, उसकी जोरदार पिटाई कर रहा है। इसी से उसको संतोष मिलता है। यह जीवन का मिथ्यात्व है, भ्रम है। मनुष्य हवा में उड़ता रहता है, वह नहीं जानता कि उसके पंख नहीं हैं। वह कभी-भी गिर सकता है, और गिरेगा भी ऐसा कि उसका अस्तित्व ही कहीं दिखाई न देगा। इसलिए हमें स्वप्नावस्था में ऊपर उठकर यथार्थ के धरातल पर पाँव रखने ही होंगे। चलना तो इसी जमीन पर ही पड़ेगा।
मनुष्य प्रायः स्वप्न में या नींद में जीता है। उसका परिणाम यह निकलता है कि वह सत्य को जानता तो है, उसकी चर्चा भी कर लेता है, पर उसे जीवन में उतारने के नाम पर वह शून्य ही रह जाता है। यथार्थ पर चर्चा करना अलग चीज है और यथार्थ को जीवन में घटित करना अलग चीज है। तुम चर्चा और भाषण तो आत्मा पर कर लोगे, पर जिओगे देह-भाव में ही।शरीर पर थोड़ी-सी विपत्ति आयी कि तुम डांवाडोल हो जाओगे।
हम केवल भाषणों में महावीर की चर्चा कर लेते हैं और मंदिर में प्रार्थना । विगत वर्षों में महावीर और बुद्ध पर काफी कुछ बोला गया है, पर हमारे जीवन में महावीरत्व या बुद्धत्व घटित कहाँ हो सका? प्रवचनों में हमने चर्चाएँ की, पर्युषण में सुना, महावीर के कानों में कीलें ठोकी गयीं, डंक मारे गये, वे उल्टे लटकाये गये, पर वे
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