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________________ होगा, जितनी गहरी हमारी प्यास होगी। बगैर प्यास के पानी का कोई अर्थ नहीं है। दो कौड़ी भी उसकी कीमत नहीं है। जब तक हमारे अन्तर-जगत् में शिष्यत्व का अंकुरण नहीं होता; शिष्यत्व से मतलब अपना ईगो नहीं मिटता, ईगो टकराता है, अहंकार झुक नहीं जाता, तो सद्गुरु की ओर से जलाया गया चिराग हमारे लिये कोई अर्थ नहीं रखेगा। रोशनी वापस लौट जायेगी क्योंकि हमारे द्वार-दरवाजे बन्द होंगे। सद्गुरु तो चाहेगा कि वह हमें बदले, हमारा कायाकल्प करे। हमारी आत्म-चेतना का रूपांतरण करे। ___ एक संत नौका में बैठकर नदी पार कर रहे थे। उस नौका पर कुछ उद्दण्ड युवक भी सवार थे और वे संत के साथ हंसी-ठठ्ठा, बेहुदी मजाक कर रहे थे। कोई संत पर व्यंग कसता तो कोई संत के मुंह पर पानी फेंकता। संत उनकी करतूतों पर चुप रहे। उनकी नौका के समीप से एक दूसरी नौका गुजरी, जिसमें एक भद्र-पुरुष बैठे थे। उन्होंने देखा कि युवक संत को परेशान कर रहे हैं, तो अपनी नौका को और करीब करवाया और संत से कहा कि ये नवयुवक इतनी उद्दण्डता कर रहे हैं और आप कुछ भी नहीं बोलते? आपकी अनुमति हो, तो मैं इन्हें सबक सिखाने के लिए कुछ करूं? संत ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया कि तुम मेरी सहायता के लिए आए, इसके लिए धन्यवाद। लेकिन तुम कुछ करना ही चाहते हो, तो इनकी मानसिकता बदल डालो, ताकि भविष्य में कभी ये किसी और के साथ ऐसा व्यवहार न करें। बदलना ही है तो स्वभाव, विचार और भावों को बदलो। एक स्नेही संत, एक प्यारे सद्गुरु का पहला धर्म व्यक्ति की बुद्धि का कायाकल्प करना है। व्यक्ति के मन का रूपान्तरण करना है। उसकी मानसिकता को बदलना है। आनन्दघन का जो पद आज लिया जा रहा है, उसकी पृष्ठभूमि यही है कि हमें अपने जीवन में ऐसा गुरु कब मिलेगा, जो कौए को हंस में रूपांतरित कर दे, अपने स्नेह भरे स्पर्श से हमारे अनुभव-जगत में ज्योति का संचार कर दे, चेतना का विस्तार कर दे। 'क्यारे म्हानै मिलसै संत-सनेही। संत सनेही सुरजन पाखै, राखे न धीरज देही।। सो परम महारस चाखै/८६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003857
Book TitleSo Param Maharas Chakhai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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