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________________ कपड़े पहनते हैं। अब दुनिया हंसे, तो हंसे। उन्हें उससे क्या? जैनों में दिगम्बर-परम्परा के मुनि नग्न रहते हैं। अब अगर उन्हें नंगा देखकर कोई सकुचाये, तो इससे उन्हें क्या? उन्हें तो कोई संकोच नहीं है। तुम्हें हो, तो तुम बचो। तुम अपने व्यक्तित्व का मूल्य दुनिया की दृष्टि से आंकते हो या अपने आपकी दृष्टि से? दुनिया की दृष्टि से आंकते हो, तो आनन्दघन तुम्हारे लिये अर्थहीन है। आनन्दघन की दृष्टि से अपने कार्यों का मूल्यांकन करते हो, तो तुम्हें लगेगा कि तुमने जो किया है अच्छा किया है। दुनिया लाख उसे बुरा कह ले मगर तुम्हारे अनुभव की किरण में वह सही है। अपने आप की दृष्टि में अपने मूल्यों की गिरावट नहीं होनी चाहिए। दुनिया की दृष्टि की परवाह नहीं करनी चाहिए। दुनिया तो भेड़धसान है। एक कुए में गिरा तो बाकी भी उसी का अनुसरण करेंगे। दुनिया में सत्य का नहीं, दिखाऊपन का मूल्य है। यहाँ शृंगार पूजा जाता है, सत्य का सौन्दर्य नहीं। समता का जन्म मनुष्य के अंतर-हृदय में होता है। भीतर के क्षीरसागर में समता का विष्णु निवास करता है। हिंदू शास्त्रों की यह बहुत ही प्रसिद्ध कथा है कि जब सागर मंथन हुआ तो चौदह रत्न निकले पर सबसे पहले विष निकला, फिर अमृत निकला। इसी तरह हृदय के सागर में जब अंतर-मंथन होता है, तब विष और अमृत दोनों ही निकलते हैं। ऐसा नहीं कि विष का उत्पत्ति स्थान कोई और, और अमृत का कोई और अमृत कोई तरल पदार्थ या वस्तु नहीं है। व्यक्ति के हृदय का संस्कारीकरण ही जीवन का अमृत है और संस्कारित हृदय के विकृत होने का नाम ही विष है। व्यक्ति का हृदय जब क्रोध में रूपांतरित होता है, तो वही जहर बन जाता है, संस्कारित होता है तो अमृत हो जाता है। हृदय के रत्नाकर में समता का जन्म होता है, जिसमें छाया पड़ती है अनुभव के चांद की। खिले हुए, मुस्कुराते हुए चांद की। जहां अनुभव हो वहीं पर वास्तविक आस्था पैदा होती है, तब अमृत को कहीं से लाना नहीं पड़ता। वह अपने आप भीतर प्रगट हो जाता है। मेरे लिए श्रद्धा का जितना मूल्य है उससे ज्यादा अनुभव का है। अनुभव से कोई बात गुजर गई तो आस्था उसका परिणाम होगा। समता का संगीत सुरीला/७८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003857
Book TitleSo Param Maharas Chakhai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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