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आंखों का खुलना है लेकिन भीतर का जागरण ही अध्यात्म की दृष्टि से चेतना का जागरण है, जिससे जीवन में अध्यात्म का विकास हो सके।
बाबा ने गाया है
जगत् गुरु मेरा, मैं जगत् का चेरा। मिट गया वाद-विवाद का घेरा।। गुरु के रिधि-सिधि सम्पत्ति सारी, चेरे के घर खपर अधारी।। गुरु के घर सब जरित-जरावा, चेरे की मढ़िया में छप्पर छावा।। गुरु मोहे मारै सबद की लाठी, चेरे की मति अपराध नी काठी।। गुरु के घर का मरम न पावा, अकथ-कहानी आनंदघन बाबा।।
स्वयं में गुरु का गौरव नहीं पनपा पर गर्व करना शुरू कर दिया। शिष्य बनाते समय तुम्हारा लक्ष्य किसी के जीवन का कल्याण नहीं अपितु शिष्य-परिवार में वृद्धि करने का रहता है, तो शिष्य के साथ तो धोखा है ही, स्वयं के साथ भी धोखा है।
सर्वप्रथम तो आनंदघन अपने पद में यह कहना चाहते हैं कि मुझे गुरु की तलाश थी, इसलिए कि मैंने अपने आपको अपराधों से घिरा हुआ पाया। स्वयं को मूर्च्छित व संसार की बेहोशी में पाया। जब मैंने गुरु की तलाश प्रारंभ की तो मेरे सामने मुसीबत खड़ी हो गई। जिसे देखो मेरा गुरु बनने को तैयार और आज जब मैं योग-साधना की इस पराकाष्ठा पर पहुंच चुका हूँ, तब भी मैं कहूं कि तू मेरा गुरु है तो बड़ा खुश होता है। उसकी आत्मा बड़ी प्रसन्न होती है। प्रसन्न आत्मा से हर कोई एक दूसरे का गुरु बनने को तैयार है। उस व्यक्ति में योग्यता या पात्रता हो या नहीं पर जमात बढ़नी चाहिए। तुमने संख्या में वृद्धि के लोभवश शिष्य तो खूब सारे बना लिए पर उनको दिया कुछ नहीं। यह दुर्भाग्य की बात है कि आज दीक्षा में वैराग्य कम, बहकावा अधिक काम कर रहा है। जिस महान उद्देश्य को बताकर दीक्षा ली/दी जाती है, उसमें हम कितने खरे उतर पाते हैं?
सो परम महारस चाखै/५७
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