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________________ वासनाग्रस्त, कषायग्रस्त, मोहग्रस्त चित्त के लिए खतरा ही खतरा है। जो देह-भाव से पार लग गया, काया के पार के अस्तित्व को उपलब्ध कर चुका, अन्तर्बोध को, सम्बोधि को उपलब्ध हो चुका, उसके लिए स्त्री-पुरुष का भेद नहीं है। वह स्त्री-पुरुष दोनों के लिए मध्यस्थ है, तटस्थ है। जो देहातीत होकर जीता है, उसके लिए कौन पुरुष, कौन नारी? शुकदेव और उसके पिता दोनों ब्रह्मज्ञानी कहलाते थे। शुकदेव की उम्र बमुश्किल पच्चीस-तीस वर्ष के लगभग होगी जबकि शुकदेव के पिता वृद्ध थे। शुकदेव और उनके पिता दोनों गांव से बाहर जा रहे थे। तालाब के पास से गुजरते हुए शुकदेव के पिता ने देखा कि उनका बेटा बहुत पीछे छूट गया है। तालाब में गांव की महिलाएं निर्वसन नहा रही हैं। मेरे तो कोई फर्क नहीं पड़ता पर मेरा नवयुवक बेटा इधर से गुजरेगा। स्त्रियों ने शुकदेव के पिता को देखकर अपने-अपने वस्त्रों को बदन पर लपेट लिया। शुकदेव के पिता नजरों को नीचे किए हुए आगे बढ़ गए और तालाब से कुछ दूरी पर एक पेड़ की ओट में खड़े हो गए, अपने बेटे की प्रतीक्षा में। महिलाओं ने फिर अपने वस्त्र किनारे पर रखे और नहाने में मशगूल हो गईं। शुकदेव उधर से गुजरे। जिस मस्ती में चले आ रहे थे, उसी मस्ती में आगे बढ़ गए। शुकदेव अपने पिता से मिले पर पिता के मन में तो एक ही प्रश्न कौंध रहा था कि वृद्ध सन्त आया, तब महिलाओं ने अपने वस्त्र वापस पहन लिए और जब शुकदेव आया तब उन्होंने वस्त्र नहीं पहने। जैसे नहा रही थीं, वैसे ही नहाती रहीं, क्यों ? निर्लज्ज! वे वापस आए और उन्होंने महिलाओं से प्रश्न किया कि तुमने एक वृद्ध के सामने तो वस्त्र पहन लिए जबकि एक नवयुवक के सामने निर्वस्त्र नहाती रहीं, क्यों? महिलाओं ने कहा, इसलिए कि शुकदेव, शुकदेव है। शुकदेव के लिए इस बात का महत्व ही नहीं है कि तालाब में स्त्रियां नहा रही हैं अथवा पुरुष। ताज्जुब है कि जो प्रश्न शुकदेव के मन में उठना चाहिए, वह प्रश्न आप वृद्ध के मन में उठ रहा है। शुकदेव निर्लिप्त थे। इस भेद से ऊपर उठ चुके थे कि यह पुरुष है अथवा नारी। वे चैतन्य हो चुके थे, देहातीत हो चुके थे। बाबा कहते हैं-बरन न भांति हमारी। रंग-वर्ण के भेद तो हमारी सो परम महारस चाखै/२१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003857
Book TitleSo Param Maharas Chakhai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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