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________________ खेल रहे थे कि जिसकी नजर सड़क पर गुजरने वाले स्कूटर पर सबसे पहले पड़ेगी, वह स्कूटर उसी का । अभी जो स्कूटर निकला, उसे यह कहता है कि मैंने पहले देखा, जबकि मैं कहता हूँ कि मैंने पहले देखा ।' मुझे लगता है कि सारे लोग ही बच्चे हैं। जिस तरह बच्चे कहते हैं कि यह स्कूटर मेरा है, उसी तरह बड़े कहते हैं कि धन-दौलत मेरी, यह मकान मेरा । यह जमीन तो यहीं की यहीं पड़ी रह जाएगी। जिस जमीन को तुमने खरीदा, न जाने अब तक कितने लोगों ने उस पर अधिकार किया और न जाने कितने लोगों ने अपने नाम से उसके पट्टे बनवाए होंगे? जमीन वही है, स्वामी के नाम बदल रहे हैं । संसार की कोई आधारशिला है, तो तादात्म्य के अलावा और कोई नहीं । अध्यात्म का सार - सूत्र है, तो तादात्म्य को तोड़ने के अलावा और कोई नहीं । सारे धर्मों के रास्ते तादात्म्य को तोड़ने के लिए हैं क्योंकि तादात्म्य रंग, रूप, वर्ण, भाषा, जाति-पांति के साथ है । ये सब मानव जाति के उत्थान नहीं, उलझाव हैं। बस ऐसा समझिए कि कोई मकड़ी अपना जाल स्वयं बुनती है और फिर उसी में उलझ जाती है। कभी-कभी मन घुटता है तो आदमी की इच्छा होती है कि वह मकड़ी के इस जाले से बाहल निकल आए लेकिन तादात्म्य इतना गहरा होता है कि इच्छा धरी रह जाती है । मकड़ी अपने जाले को छूती है और फिर भाव उठते हैं कि वह जाले को कैसे तोड़े क्योंकि बनाने में उसने अपनी ऊर्जा, समय, चेतना लगाई है । वह उसी जाले में फिर आ जाती है और फिर उसी में फंसी रह जाती है । राग है - यह तृष्णा ! वासना ! आदमी भी मकड़ी के से जाले बुनता है । मकड़ी को जाला बुनते हुए देख लो, तो तुममें और उसमें कोई फर्क दिखाई नहीं देगा। मैंने मकड़ी को जाला बुनते हुए भी देखा है और आदमी के संसार को भी देखा है। इसलिए पहचानता हूँ कि दोनों में कोई अन्तर नहीं है। वही बुनना, वही प्रक्रिया । मकड़ी तो अबोध व नासमझ है, इसलिए वह बाहर नहीं निकलती, पर आदमी तो समझ रखता है। मनुष्य के मकड़जाल बड़े विचित्र होते हैं । तब हम कहते हैं कि यह मेरा बेटा है, यह मेरी पत्नी है, इसलिए कि संसार की भावना है । धर्म की भावना जग जाए, तो तुम धर्म स्थानों में आकर कहोगे - यह Jain Education International सो परम महारस चाखै/१५ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003857
Book TitleSo Param Maharas Chakhai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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