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भावै न चोकी जराव जरी री। सिव कमला आली सुख न उपावत, कौन गिनत नारी उमरी री।।
वस्त्रों और आभूषणों का भार तो अब भभका मारने लगा है। ऐसा लगता है जैसे कोई कुत्ता भौंकता है। मैंने पिया के इन्तजार में जो वस्त्र-आभूषणादि पहन रखे हैं, अब तो इनका अर्थ नहीं रह गया है। पिया हो तो सजावट की जाए। पिया न हो तो किसके लिए शृंगार?
___ आजकल तो सारे शृंगार दुनिया को आकर्षित करने के लिए व सुन्दरतम दिखने की चाह में किये जा रहे हैं। हमें ‘लिपिस्टिक' की परतों में छिपा भीतर का सौन्दर्य दिखाई नहीं देता। आरोपित सौंदर्य सबको अच्छा लगता है, प्राकृतिक सौंदर्य नहीं।
बाबा कहते हैं- जरी से बनी यह चौकी अब मुझे सुहाती नहीं है। स्वर्ण या रजत की किसी भी चौकी में मुझे राग या रस नहीं है। शिव-कमला यानी मुक्ति-ललना को पाने की मुझे कोई चाह नहीं है। वह भी मुझे सुखदायी नहीं लगती। जब मैं शिव की कमला, मुक्तिरमणी को पाना नहीं चाहता, तो फिर इस लोक की नारियों की गिनती तो होगी ही क्या!
कबीर कहा करते थे
राम मेरा पीऊ, मैं राम की बहुरिया।
राम मेरे प्रिय हैं, पति हैं, मैं राम की बहुरानी हूँ। स्वयं को नारी और परमात्मा को पुरुष मानना -यह परम प्रेम है। पुरुष अगर खुद में नारी-भाव ले आए, पत्नी-भाव ले आए, तो पुरुष के मन में स्त्रियों के प्रति जो आकर्षण रहता है, वह निकल ही जाता है। जब खुद ही राम की प्यारी बन गये, तो और किसी को अपनी प्यारी बनाने की ललक जगेगी ही नहीं। भक्ति मार्ग के रहस्यों में यह भी रहस्य है।
सास, विसास, उसास न राखै, नणद निगोरी भौरे लरी री। और तबीब न तपती बुझावै, आनंदघन पीयूष झरी री।
सो परम महारस चाखै/१२५
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