________________
इसलिए वह सोचता है कि मैं कहां महावीर हो सकता हूँ? मेरी काया वज्र की कहां, जो हाथी सूंड से उठाकर नीचे गिराए, तो भी चकनाचूर न होऊँ? मेरे पांवों में वह क्षमता कहां कि यमुना नदी को पार करूं
और अंगूठे का स्पर्श पाकर नदिया शांत हो जाए, मेरू पर्वत कांप उठे या तर्जनी पर गिरिराज धारण कर लूँ, ऐसी क्षमता मुझमें कहां?
मगर मेरा मानना है कि धरती पर किसी एक इन्सान के साथ कोई घटना घटी है, तो धरती के हर इन्सान के साथ वह घटना घट सकती है। एक छोटा-सा अंकुश हाथी को नियंत्रित कर पाने में समर्थ है। एक छोटी-सी चींटी हाथी को परास्त कर डालती है। उसको विक्षिप्त बना देती है। चेतना कितनी भी संकुचित क्यों न हो जाए, वह कितने ही लघु आकार में क्यों न समा जाए लेकिन फिर भी उसकी शक्ति असीम होती है। चेतना की ऊर्जा को जगा लो, तो पता चले कि चेतना में कितनी महान शक्तियां हैं। प्राण-शक्ति को जगाकर, उसे ऊर्ध्वमुखी करके ही संत-पुरुष अमृतजीवी होते हैं।
माटी, जिस पर आदमी चलता है, उसका लाखवां कण भी अगर चैतन्य हो जाए, तो वही कण नागासाकी जैसे नगरों को ध्वस्त करने में अकेला काफी सिद्ध होगा। अणु बम या परमाणु बम और कुछ नहीं, माटी के एक कण से ही पैदा की गई शक्ति है, एक ऊर्जा है। मनुष्य जिसका जीवन अणु का विस्तार है अगर उसमें चैतन्य-विस्फोट हो जाए, तो ज्ञान-विज्ञान की अपरिसीम सम्भावनाएं अपने नये-नये द्वार खोल सकती हैं। कुंडलिनी-योग के जो सन्दर्भ मिलते हैं, वे वास्तव में चैतन्य-जागरण और चैतन्य-विस्फोट के लिए हैं। कुंडलिनी यानी प्राणशक्ति, शक्ति का घटक। कुंडलिनी को जगाने का मतलब प्राण-शक्ति को, चैतन्य-शक्ति को, नाभिकीय-शक्ति को सचेत करना, उसका शरीर के अन्य चैतन्य-केन्द्रों में विस्तार करना। चैतन्य-ध्यान और सम्बोधिध्यान की प्रक्रियाएं वास्तव में चेतना के जागरण और अस्तित्व से साक्षात्कार के लिए ही हैं। अपनी सामर्थ्य और शांति को बढ़ाने के लिए हैं।
हम सोचें कि जीवन का अतीत क्या था, तो पता चलेगा कि जीवन महज एक सचेतन अणु का ही विस्तार है। हमारा शरीर जो अभी छः फुट का नजर आता है, वह प्रारंभ में दो फुट का ही था।
सो परम महारस चाखै/१२
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org