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________________ उनका पांव किसी व्यक्ति पर पड़ चुका था। पांव लगते ही रामानंद जोर से कह उठे- राम! राम!! कबीर खड़े हो गए और कहा, प्रभु! गुस्ताखी माफ करें पर मैं धन्य हुआ, मुझे गुरु-मंत्र मिल गया। आज से आप मेरे गुरु! तब से कबीर राम-नाम सुमरते रहे और जीवन भर उसी के होकर रह गए। गुरु, गुरु-कृपा या गुरु के मुख से गुरु-मंत्र मिल जाए, तो परमात्मा के मार्ग का रास्ता खुल जाता है। प्राणवत्ता स्वयं को फूंकनी पड़ती है, प्राण-प्रतिष्ठा स्वयं को करनी पड़ती है। 'सद्गुरु' जिनका चिराग जल चुका है, जिनकी अन्तर्-आंखों में परमात्मा का तट है, उनके मुंह से निकला एक शब्द भी एक अभिप्सु/मुमुक्षु/जिज्ञासु शिष्य के लिए तो महामंत्र हो जाता है, वेदवाक्य बन जाता है। गुरु की मूरत रहे ध्यान में, गुरु के चरण बनें पूजन। गुरुवाणी ही महामंत्र हो, गुरु-प्रसाद से प्रभु-दर्शन। मेरे मनमन्दिर में सदैव गुरु की मूरत रहे। मेरी सारी आराधना मेरे गुरु के चरण बन जाएं। गुरु की हर वाणी, हर शब्द, हर संकेत मेरे लिए बड़े से बड़ा महामंत्र हो जाए क्योंकि बगैर गुरु की कृपा के न तो परमात्म दर्शन है, न आत्म-साक्षात्कार है। मुक्ति की कामना से यात्रा प्रारंभ होती है और सद्गुरु की कृपा से यात्रा आगे बढ़ती है। जब तक मुक्ति की कामना न हो तब तक यात्रा प्रारंभ ही नहीं होगी। इसीलिए बाबा आनंदघन के जो पद हैं, उनकी शुरूआत मुक्ति की कामना से हुई है। सद्गुरु की कृपा से यह यात्रा कदम-दर-कदम आगे बढ़ रही है और अपने प्रियतम से मिलन ही बाबा आनंदघन का सबसे बड़ा लक्ष्य, सबसे बड़ी आराधना, सबसे बड़ी पूजा बन चुका है। बाबा के अन्तर्-मन में अपने प्रियतम के लिए एक गहरी कसक, एक गहरी मनोव्यथा है। बाबा जैसे योगी और गुफावास करने वाले के मन में भी ऐसी खुमारी! वीणा की ऐसी झंकार! पिया बिन निस दिन झूरूं खरी री। सो परम महारस चाखै/११५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003857
Book TitleSo Param Maharas Chakhai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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