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________________ का आधार बनती है। सात दिनों को एक कर दो तो वह सप्ताह बनता है और सप्ताहों को एक करो तो महीना और महीनों को संयोजित करो तो वर्ष निर्मित होता है। यही मेल-मिलाप परिवार के साथ भी लागू होता है। भाई-बहिन, सास-बहू, देवरानी-जेठानी जहाँ मिलते हैं, वह परिवार है। परिवारों की एकता समाज बनाती है। समाजों से ही धर्म, राष्ट्र और विश्व अपना अस्तित्व रखते हैं। अलग-अलग भागों में बँटा हुआ देश, अलग-अलग भागों में बँटा हुआ धर्म, अलग-अलग भागों में बँटा हुआ समाज और परिवार कुछ भी नहीं होता। न परिवार, न समाज, न धर्म और न देश। एक सूत्र में रहना ही परिवार को एक रखने का राजमंत्र है। एक-दूसरे के प्रति त्याग-परायणता रखने से ही किसी का भी घर एक रह सकता है। एक सूत्र में बँधे घर से बढ़कर कोई मंदिर या मकान नहीं होता और न स्वर्ग या मधुवन होता है। जहाँ घर के सभी सदस्य साथ रहते हैं और एक ही चूल्हे का भोजन करते हैं, यह उस घर का पुण्य है किन्तु जब एक ही माता-पिता की संतानें अलग-अलग घर बना लेती हैं और एक दूसरे का मुँह देखना भी पसन्द नहीं करती तो यही कारण उनके पारिवारिक पाप' का बीज बन जाता है। माता-पिता के रहते हुए अगर बेटे अलग हो जाएँ तो यह माँ-बाप के पाप का उदय है, और उनका साथ रहना दोनों के पुण्यों का उदय है। त्याग परिवार की एकसूत्रता का मूलमंत्र है। बचपन में आपने वह कहानी जरूर सुनी होगी जिसका शीर्षक था सूखी डाली'। वह कहानी यह थी कि एक परिवार जो प्राचीन परम्पराओं का संवाहक था, उसमें एक आधुनिक पढ़ी-लिखी लड़की बहू बनकर आती है। घर के संस्कार और वहाँ का वातावरण कुछ इस तरह का होता है कि बहू उसमें ढल नहीं पाती। वह अपने पति को समझा-बुझा कर अपना घर, अपना मकान अलग बनाने का निर्णय कर लेती है। जब वे दम्पति अपना सामान बाँधकर जाने के लिए तैयार होते हैं तो घर के बुजुर्ग दादाजी पूछते हैं, क्या बात है बेटा, कहीं बाहर जा रहे हो?' बहू आधुनिक थी, पर मर्यादित थी। उसे घर के पुराने सोफे, पुरानी टेबल, कुर्सियाँ, दीवारों का रंग-रोगन आदि पसन्द नहीं था। वह तो दादा के सामने कुछ न बोली, पर उसकी ननद ने कहा, 'भाभी अपना घर अलग बसा घर को स्वर्ग कैसे बनाएँ ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003856
Book TitleWah Zindagi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2005
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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