________________
(६६) ॥ अथ द्वितीय ससाय प्रारंजः ॥ ॥ सुहम्मं अग्गिवेसाणं, जंबूनामं च कासवं ॥ पनवं कच्चायणं वंदे, वडं सिधेनवं तहा ॥१॥ जसनदं तुंगियं वंदे, संजवं चेव माढरं ॥ नदबा हुंच पान्नं, थूलनदं च गोयमं ॥२॥ एलावञ्च सगोत्तं, वंदामि महागिरि सुहहिं च ॥ तत्तो को सिय गोतं, बहुलस्स सिरीवयं वंदे ॥३॥ हारिय गुत्तं साइ च, वंदीमो हारियं च सामऊं ॥ वं दे कोसिय गोतं, संमिखं अजाजीयधरं ॥४॥ ति समुह खाय कित्तिं, दीव समुद्देसु गहिय पे यालं ॥ वंदे असमुदं, अकुनिय समुदगंजीरं ॥५ जणगं करगं तरगं, पनावगं णाण दंसण गु णाणं ॥ वंदामि असमंगु, सुश्र सागरपारगं धी रं ॥६॥ वंदामि अधम्मं, वंदे तत्तो य लहगु त्तं च ॥ तत्तोय अशवरं, तव नियम गुणेहिं वश्र समं ॥ ॥ वंदामि अशररिकय, खमणे रस्किय चरित्त सवस्से ॥ रयण करंग चूर्ज, अणुउँगो ररिक जेहिं ॥ ७॥ नाणंमि दंसणंमि अ, तव वि णए निच्च काल मुद्युत्तं ॥ अजाणंदि लखमणं, सिरसा वंदे पसन्नमणं ॥ ए ॥ वळून वायग वंसो,
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org