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________________ (४७) जीवियासंसप्पळगे, मरणासंसप्पउँगे, कामनोगासंस प्पलंगे. श्ह लोक श्राश्री शकि, वृद्धि, तणी आशं सा,वांबा कीधी होय, परलोक श्राश्री इंज, चक्रवर्तित णी श्राशंसा,वांग कीधी होय. जीवितव्य अने मरण तणी आशंसा,वांग कीधी होय.कामनोगतणी आशं सा,वांबा कीधी होय॥अनेरु ए संलेषणा विषेपद दि वसमांहे जिको कोश् सूक्ष्म,बादर,अतिचार हुवो हो य,तेसवि हुँ मनें,वचनें,कायायें करी मिठा मिक्कडं: . एवंकारे श्रीसम्यक्त्वमूल बार व्रतविषे पंच्याशी अतिचारमाहे जिको कोश् अतिचार, अनाचार, श्र तिक्रम, व्यतिक्रम हु होय, तथा जाणते, अजाण ते, सूक्ष्म, बादर, कानो, मात्रा, मिमी, पद, अदर, उनु, अधिकुं, हलवो, नारी, आगल, पाबल, कह्यो, कहेवाणो होय, ते सवि हुं, मनें, वचनें, कायायें करीमिछा मि मुक्कडं. १ तथा ज्ञानाचारें ज्ञान रहे, श्राशातना कीधी होय, पढतां, गुणतां, अंतराय कीधो होय, मछर ध यो होय, अदरने थूक लगाइयुं होय, पाटी, पोथी, कवला, वणी, नोकरवाली, कागदें पग लगाड्यो हो य, खमासमण पाखें परवाडी लीधी होय, ज्ञान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003854
Book TitleVidhipaksh Gacchiya Shravakna Daivasikadik Panch Pratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1895
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size13 MB
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