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(१७) वन्न ॥ नियनिय मान करावियां, जरदेस नयणानं द ॥ ते में जावें वंदिया, ए चोवीसे जिणंद ॥
॥ वहु ॥ कम्मनूमीहिं, कम्म नूमीहिं, पढमसं घयणि, उकोसयसत्तरिसय; जिणवराण विदरंत ल अहिं, नवकोडी केवलीण ॥ कोडीसहस्स नव साहु ग म्मइ, संपर जिणवर वीस मुणै; बिहुँ कोडीहिं वरना ण, समणह कोडी सहस्स मुश्र, थुणिसुं निच्च विहा ण ॥ जयो सामी जयोसामी, रिसह सिरि सित्तुंज, उडांतपहु नेमिजिण; जयो वीर सच्चरिमंगण ॥ नरुथडेहिं मुणि सुव्वय, महुरि पास उह ऽरिय खंगण, अवर विदेहिं तिबयरा, चिहुँ दिसि विदिसि जं केवि, तीश्रणागयसंपय, वंदूं जिण सवेवि ॥ सत्ता णवश सहस्सा, लका उप्पन्न श्रह कोडी ॥ पंचसयं चउत्तीसा, नियलोए चेश्ए वंदे ॥ इति ॥
हां चार स्तवन अथवा बहोत्तरी कहेवी. पड़ी उना थश्ने उवसग्गरं कहेवू, ते लखीयें .यें.
॥अथ उपसर्गहरस्तवन ॥ ॥उवसग्ग हरं पासं, पासं वंदामि कम्म घण मुकं॥ विसहर विस निन्नासं, मंगल कराण श्रावासं ॥१॥ विसहर फुलिंगमंतं, कंठे धारेश जो सया मणुऊ ॥
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