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(२०) , फुःख केडो न मूके तेहने ॥१॥ उपशम सन्ना इ पहेरी शरीर,उर्जन वचन न लागे तीर ॥ धरियें एक दमा मनमांहे, धर्म नहिं गामरियो प्रवाह ॥२॥ तप जप संयम पाले सार, उपशम वि णु ते सहुए नगर ॥ कोडी नवें जे तप तपे, ते कर्म जपशम घर्ड। माहे खपे ॥३॥जे आपणन गाल ज दिये, तेहशुं पराणे जश् बोलियें ॥ टाकर साकर सम करिजाण,बूरे बोलें तुं रोष म आण॥॥ पूरव पुण्य न कीधां बहु, न्याय लोक मुफ बोले सहु ॥ मारे बांधे मेले गाय, सघले थापे आपणो न्याय ॥
॥को किवारें कहे को बोल, विसारी मूकिये नेटोल ॥ ते वलतो न संजारो एक, उपशम संव
धरो विवेक ॥६॥ श्रागलो दीसे जलती आग, तो तुं पाणी थइ पगे लाग॥मननी गांठ बोडी खा मियें, मुक्ति तणां तो सुख पामियें ॥ ॥ मुहडे मिलाऽक्कड दिये, मरो फिटो श्म चिंते हिये ॥ मर्म ने मूसा बोले मूल, खम्यो खमाव्यो होय मासु धूल ॥ ॥ पृथ्वीनी परें परिसह खमे, रात दिवस जिणवचने रमे ॥ सघला धर्म मांहे उपशम मार, ते जवियण धरजो वारंवार ॥ ए ॥ रोष रा
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