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(१एए) ॥ ॥ जगवंत नांख्यो ते किहां जी, किहां मुक करणी एह ॥ गज पाखर खर किम सहे जी, सब ल विमासण एह ॥ कृ०॥ ए ॥ आप परू' आक रो जी, जाणे लोक महंत ॥ पण न करूं परमादी यो जी, मास शेष दृष्टांत ॥ कृ० ॥ १० ॥ काल अ नंतें में लह्यां जी, तीन रतन श्रीकार ॥ पण प्रमादें पाडियां जी, किहां जश् करुं हुं पूकार ॥ कृ० ॥११॥ जाणुं उत्कृष्टी करूं जी, उद्यत करुं विहार ॥ धीर ज जीव धरे नहिं जी, पोतें बहुलसंसार ॥ कृ०॥ ॥ १२ ॥ सहज पड्यो मुझ आकरो जी, न गमे नूं मी वात ॥ परनिंदा करता थका जी, जाये दिन ने रात ॥ कृ०॥ १३ ॥ क्रिया करतां दोहीलो जी, बालसाणे जीव ॥ धर्मपखे धंधे पड्यो जी, नरकें करशे रीव ॥ कृ ॥ १४ ॥ अणहता गुण को कहे जी, तो हर निशि दीस ॥ को हित शीख जली दिये जी, तो मन थाणुं रीश ॥ कृ०॥ १५ ॥ वाद जणी विद्या नण्यो जी, पररंजण उपदेश ॥ मन सं वेग धस्यो नहिं जी, किम संसार तरेश ॥ कृ॥ ॥ १६ ॥ सूत्र सिद्धांत वखाणतां जी, सुणतां कर्म विपाक ॥ दण एम मनमें उपजे जी,मुऊ मर्कट वैरा
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