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(१४) तेणे जहा संधिमुहे गहीए, सकम्मुणा किच्च पाव कारी ॥ एवं पिया पिञ्च इहं च लोए, कमाणकम्मा ण न मुरक अधि॥३॥ संसार मावन्नपरस्स अहा, साहारणं जं च करे। कम्मं ॥ कम्मरस ते तस्स उवे काले, न बंधवा बंधवयं उर्विति ॥४॥ वित्तण ताणं न लन्ने पमत्ते,श्ममि लोए अमुवा परहा॥ दी वप्पणव अणंतमोहे, नेयाज अंदामदछुमेव ॥५॥ सुत्तेसु श्रावी पडिबुझ जीवी, नवीससे पिमियासु पन्ने ॥ घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, नारंमपरकी वि चरे पमत्तो ॥६॥ चरे पयाई परिसंकमाणो, जं किंचि फासं इहमन्नमाणो ॥ लानंतरे जीविय बो हिश्रा, पन्नापरिन्नायमलावधंसि ॥ ७ ॥ बंद निरो हेण उवेश्मुकं, आसे जहा सिकिय वम्मधारी ॥ पुत्वा वासाई चरे पमत्तो, तम्हा मुणी खिप्प मुवेश मुकं ॥ ७॥ सपुत्वमेवं न लनिङ पछा, एसोवमा सासय वाश्याणं ॥ विसीयई सीढिलियाउअम्मी, कालोविणीए सरीरस्स नेए ॥ ए ॥ खिप्पं न सके ३ विवेगमेऊ, तम्हा समुहाय पहाय कामे ॥ समि च लोगं समया महेसि, अप्पाणरकी विचरे पम त्तो ॥ १० ॥ मुहं मुहं मोहगुणे जयंतं, अणेगरूवा
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