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(१५ए) अनंती, होशे वार अनंत ॥ नवकार तणी कोश श्रादि न जाणे, श्म जांखे अरिहंत ॥ पूरव दिशि चारे श्रादि प्रपंचे, समस्यां संपत्ति सार ॥ सोग ॥ १४ ॥ परमेष्ठि सुरपद ते पण पामे, जे कृतकर्म कोर ॥ पुंगरगिरि ऊपर प्रत्यद पेख्यो, मणिधरने एक मोर ॥ सहगुरुने सन्मुख विधि समरंतां,सफल जनम संसार ॥१५॥ शूविकारोपण तस्कर कीधो, लोहखरोपर सिक ॥ तिहां शेनें नवकार सुणाव्यो, पाम्यो अमरनी शचि ॥ शेग्नें घर श्रावी विघ्न नि वास्यां, सुरें करी मनोहार ॥ सो॥ १६ ॥ पंच प रमेष्ठी ज्ञानज पंचह, पंच दान चारित्र ॥ पंच सद्या य महाव्रत पंचह, पंच समति समकित ॥ पंच प्रमा दह विषय तजो पंच, पालो पंचाचार ॥सो॥१७॥ कलश उप्पय ॥ नित जपीयें नवकार, सारसंपत्ति सु खदायक ॥ शुद्ध मंत्र ए शाश्वतो, श्म जंपे श्रीज गनायक ॥ श्री अरिहंत सुसिक, शुद्ध आचार्य न णीजें ॥ श्री उवद्याय सुसाधु, पंच परमेष्टी थुणीजें ॥ नवकार सार संसार , कुशल लाज वाचक कहे॥ एकचित्तें श्राराधता, विविध शछि वांडित लहे ॥ सो० ॥ १० ॥ इति नवकारनो बंद ॥
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