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( १५५) ई मुक्तं गया, नित्य ऊठी वंदूं ॥२॥ शांति जिनेसर केवली, बेग धर्म प्रकाशे ॥ दान शीय ल तप जावना, नर सोहे अन्न्यासें ॥ एह वचन जिनजी तणां, जिणे हियडे धरियां ॥ सुणतां समकित निर्मल, निश्चे केवल वरिया ॥३॥ समेतशिखर गिरि उपरें, जश्ने अणसण कीधुं ॥ काउस्सग्गमुजायें रह्या, तिणे मुक्तिज लीधं ॥ गरुड यकसमरं सदा, देवी निर्वाणी ॥ ज ॥ विक जीव तुमे सांजलो, षनदासनी वाणी ॥४॥
॥ अथ श्रीसिक्ष्स्तुति प्रारंनः
॥ हरिगीत वंदनी चाल ॥ ॥ जगतनूषण विगत दूषण, प्रणव प्राणि नि रूपक ॥ ध्यानरूप अनुपउपमं, नमो सिझ निरंज नम् ॥१॥ गगन मंगल मुक्तिपनं, सर्व ऊर्ध्व निवासिनं ॥ ज्ञान ज्योति अनंत राजे, नमो सि क निरंजनम् ॥२॥ अज्ञान निडा विगत वेदन, दलित मोह निरायुकम् ॥ नाम गोत्र न अंतरायं. नमो सिफानिरंजनम् ॥३॥ विकटक्रोधा मानयो धा, माया लोन विसर्जनम् ॥ राग द्वेष विमुनि
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