SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १५१ ) धी ॥ शिव अविचल अरु जानत पदवी, अक्षय व्याबाध ॥ पुनर्जव सिद्धिगति सुख पूरण, are संपत्ति अबाधी । सुगु० ॥ पर० ॥ १ ॥ दर्श नज्ञान वीरिय सुखसंपद, अनंत चतुष्ट निरुपाधि ॥ तस जावादि निक्षेप जजनथी, थाये स्वरूपसमा धि || सुगु० ॥ पर० ॥२॥ इत्यतींद्रिय स्वरूप स्तुतिः ॥ ॥ अथ आचार्योपाध्यायाऽनगाराणां ॥ ॥ युगपत्स्तुतिप्रारंजः ॥ ॥ श्राचारिज पदसेवा, चहत मन श्राचारिज पदसेवा ॥ सुरपति सेवित त्रिपदी अन्यासें, शीश धरेवा सखेवा ॥ तीर्थंकर देवबंद विराजित, गण धर देशना देवा ॥ च० ॥ श्र० ॥ १ ॥ अंग डु वादस चउदस पूरव, मुहूर्त्तमांदे करेवा ॥ उप गारी उवसाय मुनिने, अंग उपांग धरेवा ॥ च० ॥ श्र० ॥ २ ॥ निजगुण अधिक उपासक चारो, सिद्धि अनीह कहेवा | जावस्वरूपचंद्र जिम उ से, सिद्धरमण सुखमेवा ॥ च० ॥० ॥३॥ इत्यां चार्योपाध्यायाऽनगाराणां युगपत्स्तुतयः संपूर्णाः ॥ ॥ अथात्मगुणस्तवनप्रारंभः ॥ ॥ श्रातमगुण अनिलाख्यो | अनुभवी श्रातम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003854
Book TitleVidhipaksh Gacchiya Shravakna Daivasikadik Panch Pratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1895
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy