________________
( १५० )
रे जिनाौ दधिमुखच गिरौ व्यंतरे स्वर्गलोके, ज्योतिलोंके जवंति जुवनमहतले यानि चैत्याल यानि" ॥ श्रीम० ॥ ए ॥ इयं श्रीजैनचैत्यस्तवन मनुदिनंये पठति प्रवीणाः, प्रोद्यत्कल्याणहेतुं कलि मलहरणं जक्तिनाज स्त्रिसंध्यम् ॥ तेषां श्रीतीर्थया चाफलमतुलमलं जायते मानवानां, कार्याणां सिद्धि रुच्चैः प्रमुदितमनसां चित्तमानंदकारि ॥१०॥ इति ॥ ॥ अथ अर्हतां स्तुतिप्रारंभः ॥
॥ श्री अरिहंत नमीजें ॥ चतुरनर ! श्री अ रिहंत नमीजें ॥ ए कणी ॥ बारस गुण शोजित जगमोहित, सुर नर नमित कहीजें ॥ श्रतिशय चार प्रथम वली आठे, प्रातिहार जस लहीजें ॥ च० ॥ श्री० ॥ १ ॥ चार सहज एकादश खायिक, उ गणीश दैव्य ग्रहीजें ॥ उत्तर अतिशय चोत्रीश पांत्रीश, वाणी समीप रहीजें ॥ च० ॥ श्री० ॥२ ॥ तीर्थंकर पद जोगी सयोगी, गुणठाणे प्रणमी जें ॥ जावस्वरूप रमण अजिलाष्यो, तेहनी था आप वहीजें ॥ च० ॥ श्री० ॥३॥ इत्यर्हतांस्तुतिः ॥
॥ श्रथ तीं प्रियस्वरूप सिद्धस्तुति प्रारंभः ॥ ॥ परमेष्ठी आराधि, सुगुणिजन ! परमेष्ठी धारा
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org