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(११७) क परग्वे रे, थायति लान पिळगण ॥ मु॥४॥ वध्या आहारें तपिया परग्वे रे, निजकोठे अप्र माद ॥ देह अरागी जात अव्यापता रे, धीरनो एह अपवाद ॥ मु० ॥५॥ संलोकादिक दूषण प रहरी रे, वर्जी राग ने वेष ॥ आगमरीतें परग्व णी करे, लाघवहेतु विशेष ॥ मु० ॥६॥ कल्पाती त थाहाबंदी कमी रे, जिन कल्पादि मुनीश ॥ ते हने परग्वणा एक मलतणी रे, तेह अल्प वली दीस ॥ मु॥७॥ रात्रे प्रश्रवणादिक परठवे रे, विधिकृत मंगल गम ॥ थिविरकल्पनो प्रति श्र पवाद ने रे, ग्लानादिक नहिं काम ॥ मु० ॥७॥ वलि एह अव्यथी नावें रे, बाधक जे परिणाम ॥ द्वेष निवारी मादकता विना रे, सर्व विनाव विरा म ॥ मु०॥ ए ॥ अंतःपरिणति तत्त्वमयी करे रे, परिहरिता परजाव ॥ अव्यसमिति परंग ना व जणी धरे रे, मुनिनो एह खनाव ॥ मु०॥ ॥ १० ॥ पंच समिति समता परिणामथी रे, दमा कोष गतरोष ॥ नावन पावन संयम साधता रे, करता गुणगणपोष ॥ मु० ॥ ११॥ साध्य रसी निजतत्त्वं तन्मया रे, उबरंगी निर्माय ॥ योग
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