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________________ ७१ __मैं इन बाईस वर्षों में, किसी महाविजन की एकाकिनी निर्विन्ध्या नदी की तरह बहती चली गई हूँ। मेरी चेतना के कुँवारे तट पर, किसी पुरुष का पद-संचार आज तक न हो सका। वीरान में विकल तड़पती, अलक्ष्य बही जा रही हूँ। मेरा प्रियतम समुद्र क्या इस पृथ्वी पर कहीं नहीं है ? तो मेरा धीरज अब टूट गया है। मैं छटपटा कर, अपनी धृति से बिछुड़ कर खड़ी हो गई हूँ। और आकाश के अधर शून्य में बहने लगी हूँ। एक खड़ी नदी। शायद मेरा प्रीतम पृथ्वी पर न टिक सका। वह अन्तरिक्षचारी हो गया। तो मैं अन्तरिक्षों के वलयों में चक्कर काटती, ऊपर, ऊपर, और ऊपर बही चली जाने को विवश हूँ। लेकिन पृथ्वी के चक्रवाक और चक्रवाकी ने मेरा साथ नहीं छोड़ा है। वे भी चिरकाल से बिछुड़े, मेरे दोनों किनारों पर एक-दूसरे को गुहारते, चले चल रहे हैं मेरे साथ। उनके विलाप से आहत हो कर दिगन्त विदीर्ण हो गये हैं। लेकिन इस अन्तरिक्ष का दिगम्बर पुरुष उससे अप्रभावित है। वह इस महानील में निर्लेप, निरंजन, निराकार हो कर जाने कहाँ खोया है। वर्षा की अनन्त रात्रियाँ अपनी बिजली की तड़पती आँखों से मुझे देखती रही हैं। वे मेरी विरह-वेदना की साक्षी हुई हैं। वे बिजलियाँ टूट कर मुझ में गल गईं। मेरे सीने में वे असह्य हिलोल्लन हो गई। कोई शीत-पाला, हिमपात, शीतपात मुझे जड़ित न कर सका। मेरी छाती में तड़कती, गलती बिजलियाँ कैसे कहीं थम सकती थीं। आग पानी होती गई, पानी आग होता गया। मेरी साँसों की बेचैन आँधियों में कुलाचल डोलते रहे, सुमेरु चलायमान होता रहा, ग्रह-तारामण्डल विक्षुब्ध हो गये, स्वर्गों की भोग-शैयाएँ त्रस्त हो गईं, समुद्रों की मर्यादाएँ टूटने के खतरे में पड़ गईं। फिर भी मेरा नियतिपुरुष मेरे तट पर नहीं आया। नहीं आया। यह सारा जीवन, मैं एक निर्जन अटवी के वृक्ष की तरह स्थाणुवत् जी गयी। मेरी सारी इच्छाएँ, एषणाएँ, भूख-प्यास, इन्द्रियों के विषय-भोग, मेरे चेतस् में उद्गीर्ण न हो पाये। निरी सहज वृक्ष-वृत्ति से जीती चली गयी। वर्षा ने मेरी काया को सींचा, नहलाया, मेरी प्यास को पानी पिलाया। मुझे नहीं। वसन्त में नये पल्लव-फूलों ने मेरी देह का सिंगार किया। मेरा नहीं। मेरे अंगों के मधुर फलों ने पक कर मेरे शरीर का पोषण किया। मेरा नहीं। शीत के झकोरों ने मेरे तन का तार-तार तोड़ दिया। मुझे नहीं। मैं केवल उस वृक्ष में एक व्याकुल स्पन्दन हो कर कसमसाती रही, और उसकी हर अवस्था को देखती रही। और वृक्ष अपने आशा-अपेक्षाहीन एकान्त में जीता ही चला गया। शायद कभी कोई यात्रिक उसकी छाया में विश्रान्त होने आ जाये ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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