SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सकता है । यह भी स्पष्ट सम्वेदित हुआ था, कि तुमने मुझे अपनाया है। यहाँ तक भी लगा, कि तुमने मुझे चुना है । नहीं तो सारा गणतंत्र एक ओर, सारी वैशाली एक ओर, और एक अकेली गणिका आम्रपाली दूसरी ओर, ऐसा नहीं हो सकता था। लेकिन वह हुआ । तुमने मुझे चुना, इतना ऐकान्तिक रूप से, यह कोई साधारण सौभाग्य नहीं था, किसी भी नारी के लिये । फिर मैं तो एक वेश्या थी। ''लेकिन फिर भी, एकमेव पुरुष की एकमेव नारी, और एकमेव नारी का एकमेव पुरुष, आमने-सामने नहीं हो सके । तुम्हारी चेतना में शायद वह एक अनहोनी थी । तुम्हारे भागवत मन में भला, ऐसा भाव उठ ही कैसे सकता था! ___ और फिर तो तुम महाभिनिष्क्रमण कर गये । गृह-त्याग कर अनगार, असिधारापथचारी संन्यासी हो गये । जब यह उदन्त मेरे कान पर पड़ा, तो मेरा नारीत्व सदा के लिये चूर-चूर हो गया । एक दिन अपने एक मात्र पुरुष को आत्मार्पण करने की, जो रक्त-कमल-सी विदग्घ लौ मेरे हृदय के गोपन में निरन्तर जल रही थी, उस पर तुषारपात हो गया । मेरा गर्भ जैसे विस्फोटित हो कर पृथ्वी में लुप्त हो गया । मेरे भीतर की विकल कामिनी रमणी, अपनी अन्तिम मौत मर गई । फिर भी यह कौन है, कौन योषा है, जो अब भी जीवित है, और अपनी व्यथा की तहें उलट रही है ? अपने गोपन मर्मों को एक-एक कर उघाड़ने को इस क्षण आतुर हो उठी है । चिरन्तन् नारी! उसे कौन मिटा सकता है ? और क्या तुम आज भी मेरे चिरन्तन् पुरुष नहीं ? तुम्हें मुझसे कौन छीन सकता है ? वही शाश्वती नारी, आज अपने शाश्वत पुरुष के आगे, अपनी अन्तिम पीड़ा खोल देने को प्रस्तुत है।जानो महावीर, मैंने तुम्हें अपनी योनि के भीतर से प्यार किया है। तुम्हारे हर स्मरण के साथ, मेरी योनि में ऐसे विदग्ध माधुर्य का रोमांचन और सिंचन होता है, कि उसके आगे मुझे उपनिषदों का ब्रह्मानन्द फीका जान पड़ता है। तुम्हें प्यार करने के दौरान, मेरी योनि को ही बार-बार मेरा हृदय हो जाना पड़ा है : मेरे हृदय को ही मेरी योनि हो जाना पड़ा है। तुम्हारे साथ एकात्म, एक-देह होने की अनिर्वार व्याकुलता के चलते, देह और आत्मा का भेद-विज्ञान मुझे अज्ञान प्रतीत हुआ है। मैं एक ऐसे एकत्व और अनन्यत्व में तुम्हारे साथ जीती चली गयी हूँ, कि उस चेतना-स्तर पर कोई भी भेदाभेद और द्वंद्व मुझे छूछा और असत्य प्रतीत होता है। तुम्हारे लिये तड़पते मेरे वक्षोजों और बाहुओं के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy