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अग्नि-पुत्र माना। और फिर कहा कि--"मेरे आगामी युग-तीर्थ में मिट्टी की चिर अवहेलित प्यास जब चीत्कार कर उठेगी, तो उसका उत्तर गोशालक की राह ही महावीर से मिलेगा ।
इस प्रकार मेरे सृजनात्मक विज़न के वातायन पर, आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व ही, हमारे समय की विद्रोही वाम शक्ति और मिट्टी की प्यास-पुकार को महावीर द्वारा स्वीकृति मिली थी। मेरे प्रभु ने हमारे युग के हर नकार को मान्यता दे कर, उसे अन्तिम सकार का ही एक अनिवार्य उपक्रम मान कर, एक विधायक स्वीकृति दी है। इसमें गोशालक की मूल आगमोक्त कथा का कोई विकृतन नहीं है, इतिहास पर कोई आरोपण भी नहीं है । केवल उसका गहन मर्मोद्घाटन है, प्रतीकात्मक व्याख्यान है, उसका तलगामी मनोवैज्ञानिक अनुसन्धान, और उससे प्राप्त एक मौलिक सत्य-साक्षात्कार हे। ऐसा न हो, तो फिर सृजन की क्या सार्थकता ? महावीर से यदि मेरे समय की चरम पुकार को उत्तर न मिल सके, तो आख़िर मैं महावीर का पुनरोद्घाटन ( Rediscovery ), और पुनसृजन करने का कष्ट ही क्यों करूं ? __ यहाँ जरा प्रसंग से हट कर एक उल्लेख करना ज़रूरी है। हिन्दी में भारतीय विद्याओं के विलक्षण मनीषी और मर्मज्ञ हैं श्री कुबेरनाथ राय । स्व. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी तथा डॉ० भगवतशरण उपाध्याय के बाद आज वे ही हमारे बीच प्राचीन भारतीय वाङ्गमय के अप्रतिम अभिनव व्याख्याता हैं। अपनी इस गोशालक कथा के चित्रण में, श्री कुबेरनाथ के अक्षय्य ज्ञानकोश के स्रोतों से गोशालक सम्बन्धी जो दुर्लभ विवरण और पारिभाषिक पदावली का मूल्यवान लाभ मुझे मिला है, उसके लिए मैं उनका हृदय से कृतज्ञ हूँ।
प्रस्तुत चतुर्थ खण्ड के प्रथम सात अध्यायों का विस्तृत विवेचन कई अनिवार्य कारणों से करना पड़ा है। वर्तमान युग के सन्दर्भ में कामतत्व, गृहयुद्ध, रक्त-क्रान्ति आदि का जो एक नव्यमान साक्षात्कार मुझे हुआ है, उसे रेखांकित करना मुझे ज़रूरी लगा। इतिहास की सीमा का अतिक्रमण करके आम्रपाली का जो एक नया विज़न मुझे मिला, उसका स्पष्टीकरण भी अनिवार्य था । इस आशय से कि इतिहास को मैंने तोड़ा-मरोड़ा या झुठलाया नहीं है, बल्कि उसे एक उच्चतर चेतनास्तर पर प्रस्तारित है ( Project ) और उत्क्रान्त किया है । इतिहासबोध आज केवल कालऋमिक और घटनामूलक विवरण मात्र नहीं रह गया है। गहराई और ऊँचाई के आयामों में उसका एक काव्यात्मक और दार्शनिक रूपान्तर हुआ
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