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वैशाली का भविष्य
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आज से बाईस वर्ष पूर्व की बात है । वैशाली के यायावर राजपुत्र वर्द्धमान तब पहली और अन्तिम बार वैशाली आये थे । अपने ही द्वार पर अतिथि की तरह मेहमान थे । अपने ही घर के उस अयाने बेटे की वह निराली भंगिमा देख कर सारी वैशाली पागल हो उठी थी । विदेह देश की प्रजाओं को लगा था, कि उनका एकमेव राजा आ गया, एकमेव प्रजापति आ गया । जिसकी उन्हें चिरकाल से प्रतीक्षा थी ।
फिर महावीर संथागार में बोले थे । तो इतिहास की बुनियादों में विप्लव के हिलोरे दौड़े थे। वैशाली के गौरव को उन्होंने झंझोड़ कर जगाया था । बेहिचक अपने ही घर में आग लगा दी थी । तब संथागार में प्रबल आवाज़ उठी थी : 'आर्य वर्द्धमान वैशाली के लिये ख़तरनाक़ हैं । उन्हें वैशाली से निर्वासित हो जाना चाहिये ।'
और वर्द्धमान ने हँस कर प्रतिसाद दिया था : 'मेरा चेतन कब से वैशाली छोड़ कर जा चुका। अब यह तन भी वैशाली छोड़ जाने की अनी पर खड़ा है । लेकिन भन्ते गण सुनें, वैशाली का यह राजपुत्र, उससे निर्वासित हो कर उसके लिये और भी अधिक ख़तरनाक़ हो जायेगा ।'
आज वैशाली का वह बाग़ी बेटा, तीर्थंकर हो कर प्रथम बार वैशाली आ रहा है। इस ख़बर से लिच्छवियों के अष्ट - कुलक सहम उठे हैं । गण - राजन्यों की भृकुटियों में बल पड़ गये हैं। राज्य सभा संकट की आशंका से चिन्ता में पड़ी है । वयोवृद्ध गणपति चेटक सावधान हो कर सामायिक द्वारा समाधान में रहना चाहते हैं ।
लेकिन जनगण का आनन्द तो पूर्णिमा के समुद्र की तरह उछल रहा है । विदेहों का सदियों से संचित वैभव और ऐश्वर्य पहली बार एक साथ बाहर आया है । वैशाली के सहस्रों सुवर्ण, रजत और ताम्र कलशों की गोलाकार पंक्तियाँ अकूत रत्नों के शृंगार से जगमगा उठी हैं। आकाश का सूर्य धरती के हीरों में प्रतिबिम्बित हो कर सौ गुना अधिक प्रतापी और जाज्वल्य हो उठा है।
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