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नरक की सात पृथ्वियों को मैं हथेली पर रवखे केंकड़े की तरह प्रत्यक्ष देख रहा हूँ, गौतम।'
'नरक से बचने का कोई उपाय, महाकारुणिक प्रभु ?'
'विभाव से स्वभाव में लौट आ । नकार से सकार में प्रतिक्रमण कर । समय से निकल कर समयसार हो जा। समय का खिलौना जब तक तू है, नरक का ख़तरा सदा है। स्व-समय हो कर समय को खेल, तो नरक भी खेल हो जायेगा । कृष्ण ने नरक को भी खेला था। स्वयं नरक भोग कर उसने नरक को जय किया। निश्चिन्त हो जा, गौतम । अकम्प हो जा, अकम्पिक । फिर नरक कहीं नहीं है।'
'अकम्प देख रहा हूँ, अकम्प जान रहा हूँ, अकम्प हो रहा हूँ, स्वामिन् । अनुगत हूँ, शरणागत हूँ। आज्ञा करें, शास्ता।'
'निर्भय, निश्चिन्त होना है, तो निरावरण हो जा, अकम्पिक ।'
'निश्चिन्त हो रहा हूँ, भन्ते, निर्भय हो रहा हूँ, भन्ते, निरावरण हो रहा हूँ, भन्ते।'
• . और अपने तीन सौ अन्तेवासियों के साथ अकम्पिक गौतम ने दिगम्बरा भूमा का वरण किया। अकम्पिक अष्टम गणधर के पद पर अभिषिक्त हुए । शिष्यगण परिक्रमा में उपविष्ट हुए। जयध्वनि हुई:
'नरकजयी निग्रंथ जयवन्त हों।'
'अचल-भ्राता हारीत, तुम आ गये, देवानुप्रिय ! शास्ता के नवम् गणधर । माप्त भव हारीत ।'
'मुझे नाम दे कर पुकारा, मुझे अपनाया, नाथ। मैं आप्त हुआ. भगवन् ।' 'तेरा सोच है, वत्स, कि पुण्य और पाप पृथक् नहीं हैं ।' 'क्यों कि श्रुति कहती है, भगवन्, ...'
'हाँ, श्रुति एक ओर तो : पुरुष एवेदं ग्नि सर्व यद्भूतं यच्च माव्यं-कह कर एक अद्वैत पुरुष के अतिरिक्त अन्य हर अस्तित्व को नकार देती है। दूसरी ओर 'पुण्यः पुण्येन, पापः पापेन कर्मणा' वेद-वाक्य है। जब पुरुष के सिवाय कुछ है ही नहीं, तो पुण्य-पाप क्यों ? यही तुम्हारी उलझन है, हारीत अचल प्राता!'
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