________________
स्वतः प्रकट होता है, समकालीन मनुष्य की पूरी जाति के भीतर रूपान्तर, अतिक्रान्ति और अतिचेतना के रूप में संचरित होता है।
यही कारण है कि आज के मनुष्य की आचार दृष्टि सर्वथा बदल गई है। वह अनायास ही आध्यात्मिक है, चेतना-प्रधान है, बाह्याचार प्रधान नहीं। नैतिकता देश-काल-व्यक्ति सापेक्ष है, आध्यात्मिकता एकाग्र सर्व-सापेक्ष और सर्व-निरपेक्ष एक साथ है। ज्ञाता ही प्रथमतः ज्ञेय और ध्येय का निर्णायक है। उसका ज्ञान ही उसके हर आचरण का निर्णायक है। हर व्यक्ति का मुक्तिमार्ग विलक्षण, जुदा और स्वतन्त्र है : एक मात्र चालक तंत्र है अपना आत्मा, उसकी ज्वलन्त अनुभूति, उसका ऊर्जा-केन्द्र और प्रज्ञा-केन्द्र।
महावीर यदि त्रिलोक और त्रिकाल के सारे परिणमनों के ज्ञाता-दृष्टा एक साथ हैं, तो आज के युग में जो वस्तु का परिणमन है, उसमें भी महावीर के अनन्त ज्ञान का तद्रूप परिणमन है ही। आज के मनुष्य की विलक्षण मूल चेतना भी महावीर की चेतना है ही। मैंने अभी और यहाँ, ठीक इस वक़्त के आदमी के लिये 'टू-डेट' सम्भव महावीर की तलाश इस किताब में की है। 'सम्भवामी युगे-युगे' कह कर कृष्ण ने इस डायनामिक (गतिधर्मा) वस्तु-स्थिति को सदा के लिए शाश्वत के भाल पर लिख दिया है। महावीर इसी को प्रमाणित करने के लिये, अपने समय की मांग का उत्तर हो कर आये थे। और वे महावीर यदि त्रिकालवर्ती और त्रिकालज्ञानी हैं, तो स्वाभाविक है, कि आज उनका सृजनात्मक प्रकटीकरण, आज के युग के परिणमन और भाषा के माध्यम से ही हो सकता है। __ आरम्भ से ही मेरे महावीर की आध्यात्मिक दृष्टि और चेतना यही रही है। उन्होंने हर आगामी तीर्थंकर को पिछले से अलग और आगे का बताया है । जनों की ज्ञानात्मक अवधारणा का मी प्रकृत स्वरूप यही है। जो अनन्तज्ञानी है, वह पिछले को दुहरा कैसे सकता है ? प्रस्तुत तृतीय खण्ड में महावीर जब पूर्णज्ञानी तीर्थकर होकेर लोक के पास आये हैं, तो उनकी वह कंवल्य-चेतना, यहां प्रत्यक्ष वर्तन और आचार के रूप में प्रवाहित होती है। भगवान किसी बँधे-बघाये आचार-मार्ग का उपदेश नहीं देते। वे हर सम्मुख आने वाले व्यक्ति की एक विशिष्ट चेतना और संरचना के अनुरूप हो, उसकी मुक्ति का मार्ग अनावरित करते हैं। अपने हर शरणागत को उन्होंने अपने स्वतंत्र मुक्ति-मार्ग पर जाने का आदेश दिया है। और वह आदेश-वाक्य केवल इतना ही है
'अहासुहं देवाणुप्पिया, मा पड़िबन्धं करेह !' 'देवानुप्रिय, अपने को जिसमें सुख लगे, वही करो। किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध न स्वीकारो।'
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org