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जिन - दृष्टाओं ने काल की गति को जिस तरह अपने कैवल्य में तद्गतरूप से प्रत्यक्ष किया, उसके अनुसार उन्होंने उसके परिणमन को चक्राकार पाया है। एक ही अखण्ड चक्र में क्रमश: उन्होंने छह उत्सर्पिणी और छह अवसर्पिणी कालों का अवान्तर चक्रावर्तन देखा । उत्सर्पिणी के छह आरों में लोक उत्तरोत्तर उत्कर्ष करता जाता है; अवसर्पिणी के छह आरों में पलट कर लोक का उत्तरोत्तर अपकर्ष होता है । और यह क्रम एक 'साइकिल' के रूप में अटूट चलता है । इस तरह अनेकान्त - दृष्टा जिनों ने खण्ड काल और अखण्ड काल दोनों को वास्तविक स्वीकृति दी है। लेकिन आत्मानुभूति अद्वैत तक चली जाती है, और वहाँ खण्डकाल की लीला मी, अर्हत् या सिद्ध के अखण्ड ज्ञान की तरंगें मात्र रह जाती हैं। भगवान कुन्दकुन्द देव के अनन्य स्वानुभूत अध्यात्म-शास्त्र 'समयसार' से यह प्रमाणित है ।
'अनुत्तर योगी' के नायक अनन्त - पुरुष महावीर हैं । अन्य सारा घटनाचक्र उनके चारों ओर परिक्रमायित है । इस तरह यह कथा एक वैश्विक (कॉस्मिक) पट पर घटित होती है । तो स्वाभाविक है कि इसमें अखण्ड और खण्ड काल की लीला संयुक्त रूप से एक बारगी ही, हर जगह झलक मारती रहती है । महावीर जन्मजात योगी थे, और उनकी चेतना आरम्भ से ही महाकाल और अवान्तर काल की संयुति में सक्रिय दिखायी पड़ती है। वे एक साथ अखण्ड और खण्ड काल के संयुक्त चेतना स्तर पर जीते और वर्तन करते दिखायी पड़ते हैं ।
हमारा आज का समीक्षक महावीर को, तिथि क्रमिक इतिहास के सपाट मानचित्र और उसके बहुत सीमित युग - विभाजनों के परिप्रेक्ष्य में ही देख पाता है । अक्षत् धारावाही काल की चेतना तो उसे मुहाल है, पर युगविभाजित काल का भी उसका बोध बहुत संकीर्ण है। पश्चिम में तो गहराई के आयाम का अहसास प्रबलतर होने से, पुराना सपाट इतिहास-विज्ञान आउट-मोडेड होता जा रहा है, और दार्शनिक तथा चेतना- प्रधान इतिहासलेखन ही आज प्रधान है। लेकिन हम अभी भी, पश्चिम से बहुत पहले आयातित तारीख इतिहास के सपाट काल से ही चिपटे हैं। हम 'केलेण्डर ' के अत्यन्त संकीर्ण कालबोध में ही जी रहे हैं, और उसी की सीमा में कथा का सृजन और समीक्षण भी कर रहे हैं । इसी से अनुत्तर योगी के धारावाही काल का आकलन नहीं हो पा रहा है ।
एक समझदार समीक्षक मित्र ने प्रथम खण्ड की समीक्षा में प्रश्न उठाया कि विप्लवी महावीर ने जो तीर्थंकर के नाते अपने युग-तीर्थ में समकालीन
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