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परिशिष्ट
'अनुत्तर योगी' के अब तक प्रकाशित दो खण्डों में अतर्क भावक तो रसलीन हो गये, लेकिन सतर्क समीक्षक मित्रों के मन में कुछ तीखे प्रश्न उठे हैं । कुछ चुनौतियाँ भी सामने आयी हैं । इस परिशिष्ट के अन्तर्गत प्रस्तुत 'संयोजिका' में उनका माकूल समाधान करते हुए, सम्पूर्ण कृति की संयोजना पर चौतरफ़ा रोशनी डाली गयी है। वांछनीय है, कि पहले कृति को पढ़ा जाए, और फिर सम्भवित प्रश्नों और शंकाओं के उत्तर इस 'संयोजिका' में खोजे जा सकते हैं। यह ज़रूरी है कि यह भूमिका मूल कृति और भावक के बीच न आये।
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