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रखने में भूल नहीं कर सकता। इसी से तो शास्त्र पढ़ कर, अपने भोग और त्याग की तालिका बना लाये हो मेरे पास । और उस पर धर्म-राजेश्वर तीर्थंकर का सिक्का लगवाना चाहते हो । क्या मैं यथार्थ नहीं कहता, आनन्द ?'
'सर्वदर्शी, सर्वज्ञानी अर्हन्त अयथार्थ कैसे कह सकते हैं ? अपनी अधोगामी वणिक्-जीविता का पहली बार नग्न साक्षात्कार पाया, प्रभु ! मैं प्रतिबुद्ध हुआ, स्वामिन् । मैं उबर आया, नाथ । पूछता हूँ, भगवन्, क्या अर्हत् शास्त्र-विरोधी हैं ?' ___ 'अर्हत किसी के विरोधी नहीं। शास्त्र केवल सूचक है, वह दिशा-दर्शक यंत्र मात्र है । लेकिन त्रिकालवर्ती अर्हन्त शास्त्र-सम्मत और शास्त्र-सीमित नहीं । वह शास्त्र से बाधित ओर मर्यादित नहीं । उसकी अनन्त कैवल्य-ज्योति में मुक्ति के नित नव्य पन्थ सदा खुल रहे हैं । उसमें अनुपल पदार्थ और प्राणि मात्र अपने नित नव्य रहस्य और रूप खोल रहे हैं। इसी से अर्हत् क्षणानुक्षण अत्यन्त प्रासंगिक और तात्कालिक भी है। और इसी से वह सर्वकालिक है । उसके ज्ञान में तत्काल और सर्वकाल के बीच विरोध नहीं, युगपत् भाव है । वह स्वयम् इतिहास है, और फिर भी इतिहास से अतोत है। वह स्वयम् शास्त्र है, और सर्व शास्त्र से अगम्य
और उत्तीर्ण है । सारे शास्त्रों का वही उद्गम है, और हर लिखित शास्त्र को वह नकार देता है।' ___. एक ऐसे नकार का सन्नाटा सर्वत्र व्याप गया, कि उसमें अब तक के सारे आधार चूर-चूर होते. दिखायी पड़े। प्रभु की देशना के एकमेव मर्मज्ञ भगवद्पाद गौतम भी थर्रा उठे। कोई अनुसन्धान पाने के लिये उन्होंने प्रश्न उठाया :. ___हे अगम ज्ञानी प्रभु, जुड़ाव और ठहराव के सारे सूत्र हाथ से निकल रहे हैं। हम सीमित ज्ञानी, भूमा के इस असीम में कहाँ अवस्थित हों, कैसे कोई सम्यक् और अभीष्ट जीवन हम जिये? आचार का कोई राजमार्म न हो, तो असंख्य अज्ञानी जन धर्म और मोक्ष की राह पर कैसे बढ़े ?'
'अर्हत् हर आत्मा में नित्य प्रकाशित हैं गौतम, उन्हें यथार्थ जानना ही, यथार्थ जीना है। अपने ही अन्तर्वासी अर्हत की पहचान पाये बिना, बाहर के सारे व्रत तथा आचार व्यर्थ हैं, मिथ्या हैं । वे बन्धक हैं, मोक्षदायक नहीं।'
'पूछता हूँ, प्रभु, भगवान पार्श्वनाथ ने भी तो चातुर्याम धर्म का मार्ग निर्धारित किया था ? क्या वह सम्यक् नहीं था ? क्या वह मिथ्या और बन्धक था ?'
'पार्श्व ने केवल स्वभावगत धर्म कहा। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य वस्तु-स्वाभाव हैं । ये कोई बाहर से निर्धारित बाह्याचार या विधिनिषेध नहीं। ये व्रत नहीं, प्राकृत हैं, स्वकृत हैं । जो स्वभाव को जान कर उसमें
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