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में अब्याबाध यात्रित है । कहाँ है, कहाँ है, वह अमिताभ मुखमण्डल ? अपने ही
स्वरूप का ।
और हठात् उनकी दृष्टि वैभार पर्वत की एक चूलिका पर स्थिर हो गयी । और वहाँ से सहसा ही उन्हें दिखायी पड़ी : विपुलाचल की वह सर्वोच्च चूड़ा । वहाँ नीलिमा के एक निसर्ग आलय में, उद्भासित है वह अमिताभ मुख-मण्डल । - शून्य में से उद्गीर्ण महासत्ता की तरह, अन्तरिक्ष में अनालम्ब खड़े हैं, योगीश्वर महाबीर । निर्जन है इस क्षण वह सारा शिखर- प्रान्तर ।
और लो, आसमान के पटलों पर से उतर रही हैं रंगारंग रत्न- प्रभाओं से झलमलाती देव-सृष्टियाँ । अपार्थिव संगीत-नृत्य, वाजित्रों की झंकारें और तालें । इन्द्र-इन्द्राणियों, देव-देवांगनाओं के विमान मन्दार फूलों की राशियाँ बरसाते हुए विपुलाचल पर उतर रहे हैं। उन विमानों के रेलिंगों पर नाचती गाती अप्सराएँ पंचशैल के कंगूरों पर उतर कर उन्मादक अंगड़ाइयाँ तोड़ रही हैं। हजार-हज़ार भंगों में बल खाकर विपुलाचल की हवाओं में निछावर हो रही हैं ।
• मृदंगों और डमरुओं में सृजन के ध्रुपद-धमार मेघ मन्द ध्वनि से घहराने लगे । वीणा का खरज पृथ्वी के गर्भों में टंकारने लगा । और विश्वकर्मा ऋभुदेव नाद की महनगामी टॉकियों से विपुलाचल के नील शून्यों में धर्मचक्रवर्ती तीर्थंकर महावीर का समवसरण उभारने लगे ।
• देखते-देखते, योगी ऋषभसेन की आंखों के समक्ष खुलने लगी एक महामण्डलाकार, हजारों जनमनाती मेहराबोंवाली धर्मसभा ।
'ओह, कैसा खो गया था मैं विन्ध्यारण्य की वीरानियों में ! पता ही न चला मुझे, और लोक की सर्वोपरि घटना आर्यावर्त में घटित हो गई । बैशाली के राजर्षि महाश्रमण महाबोर नित्य, बुद्ध, अनुत्तर केवली हो गये । राजगृही के विपुलाचल पर स्वर्गों ने उतर कर उनकी तीर्थंकरी वाणी को झेलने के लिये बिराट् समवसरण की रचना की है । भगवान् पार्श्वनाथ के कैवल्यकल्याणक और समवसरण की गाथा हम बालपन से ही सुनते आये थे । पर कल्पलोक की दन्तकथा से अधिक तो वह कभी लगी नहीं। फिर भी उस भव्य कल्पना और स्वप्न से कैसी अजल प्रेरणा और शक्ति सदा मिलती रही है। उसी मिथक-माया ने मेरे भीतर सर्वोच्च शुक्लध्यान की अभीप्सा जगाई । उसी महामाया ने परम पुरुष होने के लिये मुझे लाचार कर दिया । और आज आज क्षपक-श्रेणी के प्रथम सोपान पर खड़ा हो कर, मैं अलौकिक ऐश्वर्य के उस महास्वप्न को अपनी खुली आंखों के सामने साकार होते देख रहा हूँ । मामा ही मूर्तिमान सत्य हो कर सामने आ गई है ।
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