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में ही महावीर के पास जा रहा हूँ, जिसके आधार पर यह विश्व स्वयम हो, बिना किसी राजा या सत्ताधीश के स्वायत्त कल्याण-राज्य हो जाये । उस सत्ता को पाये बिना मुझे जन्मान्तरों में भी विराम नहीं।'
‘एक दिन के लिए मगध के सिंहासन पर पग-धारण करो। उसमें अपना यह मंत्र संचरित कर जाओ, आयुष्यमान् !'
'आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, बापू ।' 'जयवन्त होओ, बेटा !' कहते-कहते माँ का गला रुंध गया।
अगले दिन की ब्राह्म-मुहुर्त बेला में, तुमुल शंखनादों, मंगल वाजिंत्रों, जयकारों के बीच मेघकुमार का मगध के सिंहासन पर राज्याभिषेक हो गया ।
पहले और अन्तिम दिन की अपनी राजसभा में सम्राट मेघकुमार अखण्ड दिन मौन, अकम्प बैठे रहे। चुपचाप उस राज्य-लक्ष्मी को देखते रहे, जानते रहे, और उसके सत्व को भोगते रहे ।
• • “साँझ हो आयी। सूर्य अस्ताचल पर अटके रह गये, किसी आदेश की प्रतीक्षा में । ____ और अचानक सम्राट मेघकुमार का मौन भंग हुआ। गगन-गम्भीर स्वर में उद्घोषणा हुई : ___ 'यहाँ किसी की किसी पर सत्ता नहीं। यह सिंहासन मेरा नहीं, किसी सम्राट का नहीं, स्वयम सत्ता का है, स्वयम धर्म का है। जो इस पर अपनी प्रभुता स्थापित करता है, वह सत्ता-माँ पर बलात्कार करता है । वह परम पिता की चोरी करता है। राज्य वही करे इस पृथ्वी पर, जो पहले अपना राजा हो सके, अपना स्वामी हो जाए। ____ यही मेरा मुद्रालेख है । यही मेरी एकमात्र वसीयत और राजाज्ञा है। इसे इस राज्य-सभागार के द्वार-शीर्ष पर प्रकृत चट्टान में अंकित कर दिया
जाये।
जयकारों के बीच मेघकुमार जाने कब, अपने अन्तःपुर में चल गए । आठों रानियों के बीच एक साथ जो वह अन्तिम रात बीती, वह विराग की थी या विलास की, इसका निर्णय क्या भाषा में सम्भव है ?
एक भाषातीत प्रीति में आठों रानियाँ रम्माण हो रहीं । उन्हें पता ही न चला, कि कब अचानक बड़ी भोर ही सम्राट मेघकुमार उनके मोहन-राज्य से निष्क्रमण कर गये।
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