________________
७४
... और मैं ? मैं तो उत्सर्गित हूँ, उत्क्रान्त हूँ। यहाँ हूँ ही नहीं । जाने कहाँ हूँ। मैं तो कुछ देखता नहीं : सब कुछ देखता हूँ। यहाँ भी हूँ, अन्यत्र भी हूँ। मुझ से क्या छुपा है ? उत्तर कौन दे ? · · · ___सिंह ने आश्वस्त हो कर, शून्य गृह के निर्जन अन्धकार में, विद्युन्मति के साथ निर्द्वन्द्व और तल्लीन होकर रति-क्रीड़ा की ! • • 'जब वहाँ से वे दोनों निकले, तो द्वार के पास अँधेरे में खड़े गोशालकं ने विवश हो कर दासी का कर-स्पर्श कर लिया। वह चिल्ला उठी : 'स्वामी, किसी पुरुष ने मुझे स्पर्श किया है . . . !'
तत्काल सिंह ने लौट कर गोशालक को धर पकड़ा। बोला :
'अरे कपटी, निर्लज, तेने चुप रहकर हमारी मदन-क्रीड़ा देखी है । बुलाया था, तो उत्तर भी नहीं दिया रे नीच ?'
कह कर उसने गोशालक को दोनों हाथों से उठा कर, पत्थर की दीवार से कई बार पछाड़ दिया। और अपनी दासी को लेकर छूमंतर हो गया। ___गोशालक घायल बिल्ली-सा आ कर मेरे पैरों में दुबक गया। बोला : 'स्वामी, आप के देखते इस दुष्ट ने मुझे मारा । और आपने मेरी रक्षा भी नहीं की। मेरे संरक्षक हो कर भी, मेरी दुर्गति को चुपचाप देखते रहे । कैसे स्वामी हो तुम ?' ____ मैं कुछ नहीं बोला। निष्कंप और निश्चल उसकी दुर्गति और दुर्दशा को सहता रहा । : 'मुझे अक्रिय देख, वह हार कर किसी कोने में जा पड़ा। बड़ी देर सुबकता रहा । फिर अपनी ही छाती में मुंह डाल कर, पशु की तरह सुख पूर्वक गाढ़ निद्रा में मग्न हो गया।
कौन कपटी है, कौन कामी है, कौन अकामी है, कौन सच्चा है, कौन झूठा है, सो केवली के सिवाय कौन ठीक-ठीक जान सकता है ? दूसरे चरित्न के निर्णायक हम कौन होते हैं ?
कोल्लाग से चल कर पत्रकाल ग्राम आया हूँ। यहाँ भी गांव बाहर के एक शून्यगृह का अन्धकार आवाहन देता दीखा। सो उसके एक कोने में जाकर संचेतन भाव से ध्यान में लीन हो रहा। देखू, इस अन्धकार में क्या चल रहा है ? कुछ रात बीते अचानक उच्च स्वर सुनाई पड़ा :
'अरे कोई है यहाँ ?'
शून्य में से कोई उत्तर नहीं लौटा। झिल्ली की झंकार और भी गहरी और तीव्र हो गई। एक नर-नारी युगल की पद-चाप से सन्नाटा भंग हुआ।
"प्रियतम स्कन्द !' "प्रिये, दंतिला' • • ?'
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org