SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४ सहसा ही एक घोर आवाज़ की बिजली कड़की : 'अरे ओ नग्न अवधूत, इतना दुःसाहस, कि मेरे राज्य में निःशंक प्रवेश कर गया तू ? और शंकु के समान स्थिर हो कर निर्भय खड़ा है, ओ ढीठ । किस मानवी माँ ने, मेरी सर्वनाशी सत्ता को ललकारने वाला, यह अपराधी पुत्र जना है ? आज मैं तेरे नृवंश का मूलोत्पाटन करके ही चैन लूंगा' '' और देखते ही देखते, घने विषैले नील- हरित कोहरे की लहरें तेज़ी से सार वातावरण में छाने लगीं । पतझारों में होती भयंकर सरसराहट से सारा जंगल जाग उठा । विरल पक्षी पंख फड़फड़ा कर उड़ गये। अज्ञानी, असंज्ञी जीव-जन्तु जहाँ के तहाँ भस्मीभूत हो गये । वृक्षों के सूखे स्थाणु भी चरमरा कर चीत्कार करते हुए धराशायी होने लगे । · क्रोध से उबलते ज्वालामुखी-सा फणमण्डल विस्तारित करता, वह भुजंगम सर्पराज मेरी ओर बाढ़ की तरह बढ़ा आ रहा था । सम्मुख आकर वह अपने सहस्रों फणों को पूर्ण उन्नत कर मेरी ओर एकाग्र दृष्टि से देखने लगा । मयूरपंखों की नीली-हरियाली आभा से वलयित उसकी हज़ारों आँखें एक साथ जैसे ज्वालमालाओं का वमन करने लगीं । एक घनघोर वह्नि मंडल की लपटों ने मुझे चारों ओर से छा लिया । पर सर्पराज ने देखा कि उन विकराल अग्नि- डाढ़ों के बीच भी, यह कुमार योगी निस्पन्द, अस्पृश्य और अक्षुण्ण खड़ा है । उसकी जन्मान्तरों की संचित क्रोधाग्नियाँ भी उसे जलाने में असमर्थ, पराजित, स्तंभित रह गई हैं । तब अपने समस्त प्राण को फेंक कर, वह भुजंगराज पर्वत शिखर पर गिरने वाली उल्का की तरह मुझ पर टूटा । पर उसकी वह प्राणोर्जा भयभीत, शरणागत पंखी की तरह मेरे पैरों के पास आ गिरी। और भी चंडतर क्रोध से फुंफकार कर उसने अनिमेष सूर्य की ओर ताका । सूर्यातप से उसका विष कई गुना अधिक उत्कट हो कर मुझ पर अंगारे बरसाने लगा । उस सत्यानाश के सम्मुख मैंने अपने प्राण को निग्रंथ छोड़ दिया । मेरा कायोत्सर्ग पराकोटि पर पहुँच गया । निःशेष आत्मदान के सिवाय और कोई संचेतना मुझ में शेष नहीं रही। अपने उस सर्वनाशी प्रताप तले भी इस कुमार श्रमण को फलभार- नम्र वृक्ष की तरह निवेदिन और अविचल देख कर, सर्पराज ने हवा में जोर से फन फटकारा, और मेरे पैर अँगूठे को कस कर डस लिया। फिर भी मुझे अटल देख कर, वह उन्मत्त हो कर ऊपर-ऊपरी मेरे अंगांगों पर दंश करता चला गया । अन्तिम दंश उसने मेरे हृदयदेश पर किया । और वहाँ से फिर वह अपना सर न उठा सका । हुमकहुमक कर वह गहरे से गहरे मेरे हृदय को डसता ही चला गया । मेरी पीड़ा से कसमसाती धर्मानयों में माँ का वह ममतायित मुछड़ा झाँक उठा। मेरे रोयें- रोयें मे माँ के स्तन उमड़ने लगे। मेरी शिरा-शिरा में दूध के समुद्र घहराने लगे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy