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________________ 'ग्रामजनों, बहुत हुआ । अपने गुरु का अन्तिम दुश्चरित जानकर क्या करोगे · · · !' ____'सत्य सम्पूर्ण कहें, प्रभु । ताकि हमारी मिथ्या दृष्टि और अन्ध श्रद्धा के अँधेरे सदा को फट जायें । 'तो अच्छंदक के घर जाकर, उसकी स्त्री से पूछो।' कुछ लोग दौड़कर अच्छा-बाबा के घर उनकी स्त्री के पास जा पहुँचे । अपने पति के पाखंडों और दुराचारों से पहले ही वह बहुत जली-भुनी बैठी थी। सारी कथा सुना कर अन्त में उसने अपने मन की व्यथा प्रकट कर दी : 'यह तुम्हारा गम और मेरा कहा जाता पति, अपनी बहन के साथ हर रात विषय-सुख भोगता है। मेरी इच्छा तो यह कभी करता नहीं।' ग्रामलोक ने जब यह सत्य कथा सुनी, तो उनके प्रवंचित हृदय बहुत व्यथित हो उठे। किन्तु फिर एक अपूर्व मुक्ति के बोध से आल्हादित हो वे सब आकर श्रमण के चरणों में लोट गये । कृतज्ञता से नीरव हो कर बड़ी देर आँसू बहाते रहे। अच्छंदक प्रवंचक और पापात्मा के नाम के नाम से सर्वत्र ख्यात हो गया । कहीं से भिक्षान्न पाना भी उसे मुहाल हो गया । जंगल के एकान्त में पड़ा-पड़ा वह रो-रो कर अपने पापों का पश्चाताप करने लगा । श्रमण करुणार्द्र हो आये । लोक द्वारा परित्यक्त. निष्कासित उस एकाकी दीन-अकिंचन हो गये ब्राह्मण को सुनाई पड़ा : 'तुम्हें क्षमा किया गया, अच्छन्दक । जब कोई तुम्हारा नहीं रहा, तो मैं तुम्हारा हूँ, वत्स । आओ मेरे पास । मुझे तुम्हारी प्रतीक्षा है।' ___.. दूर से ही राजसंन्यासी वर्द्धमान की कायोत्सर्ग में लीन, निर्दोष बाल्य मुख-मुद्रा पर उसने एक अति मृदु प्यार की मुस्कान देखी। वह सम्मोहित सा खिंच आया और देवार्य के चरणों में समर्पित हो रहा। ‘पापी शरणागत है, स्वामी । यह यातना असह्य है । दया कर मुझे मृत्यु दें और मुक्त करें।' 'मृत्यु है ही नहीं, तो कहाँ से दूँ। और मुक्ति तुम्हारा स्वभाव है । उसे केवल जानो, वत्स ! आत्मा हो तुम, अच्छंदक । तुम शाश्वत अस्ति हो । पाप नास्ति है : उसका अस्तित्व नहीं । वह केवल अज्ञानजन्य अभाव का अन्धकार है। देख रहा हूँ, तुम्हारे भीतर सतत प्रतिक्रमण चल रहा है । तुम अपने में लौट रहे हो । मृत्यु में मुक्ति कहाँ ? वह अनन्त अन्धकार में भटकना है । पर तुम तो प्रकाश के तट पर आ लगे हो । इधर सामने देखो । तट तुम्हारी प्रतीक्षा में है । . .' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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