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________________ पास के अनेक पशु-चिकित्सक उसने बुलवाये । रात-दिन खड़े पग रह कर उसकी सेवा-सुश्रुषा करने लगा । पर बैल की हालत में सुधार का कोई चिह्न न दीखा । सार्थवाह श्रेष्ठि आखिर हार कर आगे बढ़ने को लाचार हो गया । उसने गाँव के मुखियाओं को अपना प्यारा मित्र वृषभ धरोहर के रूप में सहेज दिया। उसके पोषण और चिकित्सा के लिए उन्हें विपुल द्रव्य दे दिया। और एक दिन अपने धराशायी पशु-बान्धव की आँखों के आँसू पोंछता, स्वयम् आँसू टपकाता, अपना सार्थ लेकर, वह आगे कूच कर गया । कह गया कि वृषभ के स्वस्थ होने पर, फिर उसे लिवा ले जाऊँगा।... . 'अब आप से क्या छुपा है, भन्ते, मनुष्य मनुष्य का ही सगा नहीं होता, तो पशु का क्यों कर होगा । सो हमारे गाँव के उस समय के मुखिया, बैल की सेवा-चिकित्सा के लिए दिया सार्थवाह श्रेष्ठि का धन हड़प कर निश्चिन्त हो गये । पीड़ित वृषभ तो उन्हें स्वप्न में भी याद न रहा । बेचारे उस मूक तिर्यंच पशु की बहुत दुर्गति हुई । न किसी ने उसे चारापानी देने की चिन्ता की, न उसका औषध-उपचार किया। कुछ ही समय में वह भूख-प्यास से पीड़ित बैल अधमरा हो कर, अस्थि-चर्म का ढाँचा मात्र रह गया । वह पशु संज्ञी मन वाला पंचेन्द्रिय प्राणी था । अतिशय दुख के कारण उसे अपनी दयनीय स्थिति का तीव्र बोध हुआ । मनुष्यों की निर्दयता और प्रवंचकता के प्रांत उसका हृदय उत्कट ग्लानि और क्रोध से भर उठा । एक ओर तो अपने स्वामी की कारुणिकता और मैत्री के प्रति उसका मन कृतज्ञा से कातर हो आया । दूसरी ओर मानव मान की स्वार्थपरता के प्रति उसके अन्तस् में प्रबल धिक्कार और तिरस्कार उपजा। ___'सो प्रभु वही वृषभ अकाम निर्जरा से मृत्यु को प्राप्त हो कर, इस ग्राम के सीमान्तर पर शुलपाणि नामा व्यन्तर हुआ । व्यन्तर देव को जन्म से ही विभंग अवधिज्ञान होता है। उसी से उसने अपने पूर्वजन्म की कथा जान ली। पिछले भव के अपने सन्तप्त वषभ शरीर को भी उसने अपनी आँखों आगे प्रत्यक्ष देखा । सत्यानाशी क्रोध से वह यक्षदेव शूलपाणि उन्मत्त हो उठा । अपनी अधोमुखी दैवी शक्ति से उसने हमारे इस प्रदेश में भयंकर महामारी का रोग विकुर्वित किया । उसके कारण सैकड़ों ग्रामजन नित्य मरने लगे । सो यहाँ मृतकों की अस्थियों का ढेर लग गया । यहाँ का सारा वनांगन अस्थियों से छा गया। उसी कारण इस ग्राम का सुन्दर नाम 'वर्द्धमान' लोगों को भूल गया । और वे इसे अस्थिक ग्राम के नाम से ही पुकारने लगे ...।' .. सुन कर मैं सहसा ही क्षण भर को अन्तर्मुख हो गया । मेरी अर्धोन्मीलित दृष्टि में फिर एक बार वह हड्डियों का पहाड़ और प्रान्तर झलक आया। • • हे भव्यो, सारे ही जनालय मूल में तो बर्द्धमान ही है। . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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