________________
वीरेन्द्र कुमार जैन अन्तश्चेतना के बेचैन अन्वेषी रहे हैं । यह रचना उनकी जीवनव्यापी यातना और तपो-साधना तथा उससे अजित सहज योगानुभूति का एक ज्वलन्त प्रतिफल है। वीरेन्द्र के लिए योग-अध्यात्म महज़ ख्याली अय्याशी नहीं रहा, बल्कि प्रतिपल की अनिवार्य पुकार, वेदना और अनुभूति रहा, जिसके बल पर वे जीवित रह सके और रचना-कर्म कर सके। ___ आदि से अन्त तक यह रचना आपको एक अत्याधुनिक प्रयोग का अहस स करायेगी। यह प्रयोग स्वतःकथ्य के उन्मेष और सृजन की ऊर्जा में से अनायास आविर्भूत है। प्रयोग के लिए प्रयोग करने, और शिल्प तथा रूपावरण (फॉर्म) को सतर्कतापूर्वक गढ़ने का कोई बौद्धिक प्रयास यहाँ नहीं है। यह एक मौलिक प्रातिम विस्फोट में से आवि
नि नव्यता-बोध का नव-नूतन शिल्पन है। आत्मिक ऊर्जा का पल-पल का नित-नव्य परिणमन ही यहाँ रूपशिल्पन के विलक्षण वैचित्र्य की सृष्टि करता है। इस उपन्यास में एकबारगी ही भावक-पाठक, महाकाव्य में उपन्यास और उपन्यास में महाकाव्य का रसास्वादन करेंगे।
ठीक इस क्षण हमारा देश और जगत जिस गत्यवरोध __ हामृत्यु से गुजर रहे हैं, उसके बीच पुरोगमन और
का अपूर्व नतन द्वार खोलते दिखायी पड़ते हैं ये शासन, सिक्के और सम्पत्ति-संचय की अनिवार्य
न करके, यहाँ महावीर ने मनुष्य और मनुष्य
..और वस्तु के बीच के नवीन मांगलिक सम्बन्ध की उद्घोषणा और प्रस्थापना की है। इस तरह इस कृति में वे प्रभु हमारे युग के एक अचक युगान्तर-दृष्टा और इतिहास-विधाता के रूप में आविर्मान हुए हैं। www.jainary.org
Jain Educationa International