________________
१२
प्रक्रिया की माँग पूरी करती है । अपने कर्ण-वेध के चरम उपसर्ग तक पहुँचतेपहुँचते, महावीर जिस क़दर अतिमानुषिक हो जाते हैं, वह जैसे उपन्यास को वास्तविकता से वंचित कर देता है ।
इस स्थिति में कर्ण-वेध की आगमोक्त कथा स्वयम् ही एक ऐसी कुंजी ( क्ल्यू) हमें अनायास दे देती है, जो अतिमानव महावीर को स्वाभाविक रूप से मानवीय स्तर पर उतार लाने में सहायक हो जाती है । कथा-सूत्र यह है कि जब खरक वैद्य के सहायक, भगवान् को तेल की कुण्डी में बैठा कर उनके शूलवेध से तने हुए शरीर को ढीला कर, उनके कानों में बिधे शूल खींच निकालते हैं,तब भगवान के मुंह से अपने बावजूद त्रास की एक चीख़ फूट पड़ती है। यह एक अति मानव की चीख़ है, जो उसकी मानुषिक वेदना की व्यंजक भी है, और समस्त ब्रह्माण्ड की मौलिक अस्तित्वगत त्रासदी की एकाग्र अभिव्यक्ति भी है । वेदना के इस चरम छोर पर रचनाकार को अवसर मिला है, कि उसने महावीर को स्वाभाविक मनोवैज्ञानिक ढंग से अपनी माँ का स्मरण करा दिया है । क्षण-मात्र के लिये महावीर के भीतर का मनुष्य, अवशिष्ट मोह-संस्कारवश, मानव हृदय की चरम शरण-रूपा माँ की गोद के लिये बरबस चीत्कार उठता है । और अगले ही क्षण, उनकी उच्च ज्ञानात्मक स्थिति का बोध इस शरण की मोह-मायाजन्य भ्रान्ति को भंग कर देता है ।
लेकिन इस घटना से जो एक मानवीय मृदुता और नम्यता उत्पन्न होती है, वह अपनी आत्मिक गुणवत्ता के बावजूद, महावीर को एक समरस मनुष्य के रूप में, अपने निकटतम आत्मीय मानव पात्रों के साथ, सहज मानवीय rant अधिकाधिक समन्वित करती चलो जाती है। यानी कि रचना में यह संगत रूप से और हठात् सम्भव हो गया है, कि भगवान जैसे-जैसे केवलज्ञान के निकटतर पहुँचते हैं, वे अधिकाधिक मानवीय होते चले जाते हैं । चूंकि अब वह घड़ी आ पहुँची है, जब उन्हें पूर्णज्ञानी और पूर्ण प्रेमी होकर संसार के तमाम मानवों और प्राणियों के पास सदा के लिये लौट आना है । मानों कि यह इस बात का द्योतक प्रतीक हो जाता है, कि केवलज्ञान महावीर के लिये महज़ निजी, वैयक्तिक आत्मप्राप्ति और जीवन्मुक्ति का साधन ही नहीं है, बल्कि वस्तुतः और सत्यतः वह उन्हें मानव मात्र और प्राणि मात्र के साथ संवेदनात्मक रूप से तदाकार करा देनेवाली उपलब्धि है । केवलज्ञानी महावीर को सृष्टि के सकल चराचर और कण-कण के साथ सर्वकाल आत्मीय हो कर रहना है। उनके केवलज्ञान की यही एकमात्र शुद्ध सम्वेदनात्मक परिणति हो सकती है।
उक्त आठ अध्यायों में क्रमश: त्रिशला, चेलना, श्रेणिक के आत्म - कथनों द्वारा अतिमानव के मानवीकरण की प्रक्रिया को सम्वेदनात्मक मूर्तता प्रदान करने का प्रयास किया गया है। प्रयास क्या, स्वयम् महावीर इसी रूप में यहाँ अपने आप सृजन में घटित होते चले जाते हैं । 'मां' शब्द द्वारा उच्चरित महावीर
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org