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________________ की ज्ञानोपलब्धि का उल्लेख भी मिलता है। इससे महावीर के आत्म-विकास की अनुक्रमिक प्रक्रिया के कुछ चरणों को रेखांकित करने की सुविधा हो जाती है । साथ ही उस प्रक्रिया का एक अनुक्रमिक मनोवैज्ञानिक अध्ययन भी सृजन के स्तर पर सम्भव हो जाता है। जो मैंने यथासाध्य किया है। आगमों में उपलब्ध तपस्या के इन सम्पूर्ण ब्योरों का मैंने उपयोग कर लिया है । उसके जरिये एक कथा-श्रृंखला उपलब्ध हो सकी है। आगमों की उपसर्गकथाएँ मी प्रथम दृष्टि में किसी सर्जक को आकृष्ट नहीं कर सकतीं। क्योंकि इनमें अधिकांश में अतिप्राकृतिकं तत्वों की भरमार है । सो कोई हृदय-स्पर्शी मानवीय सम्वेदना उनसे नहीं निपज पाती। पर जब रचना के स्तर पर मैं इन उपसर्गकथाओं को खोलने लगा, तो अनायास ही वे गहरे भावों और अर्थों से आलोकित हो उठीं । अन्वेषण की कई नयी राहें भी उनमें खुलती दिखायी पड़ीं। और अपनी रचना में यथावकाश उन अन्वेषणों को मैंने एक हद तक सम्पन्न किया है । इन उपसर्गों में कई ऐसे भी हैं, जिनमें महावीर के कई पूर्व जन्मों के बैरी, अवसर पा कर उनसे प्रतिशोध लेने के लिये, उन्हें नाना प्रकार से पीड़ित करते हैं । मनोवैज्ञानिक अन्वेषण की दृष्टि से मैंने इन जन्मान्तरीण कथाओं का भी उपयोग किया है। उन्हें मनोविश्लेषण की राह पुनर्व्याख्यायित किया है । इस तरह मुझे रचना के एक सर्वथा नये स्तर को खोज कर उस पर काम करने का सुख भी मिला । कथ्य और शिल्प दोनों ही में, इस कारण, एक नया प्रयोग सम्भव हो सका । अतिप्राकृतिक फिनॉमनन को मैं आरम्भ से ही स्वीकार करके चला हूँ । प्रथमतः इसलिये कि उनको टाल देने पर, महावीर की आध्यात्मिक सामर्थ्य की वह ऊँचाई और इमेज उपलब्ध नहीं हो पाती, जो ज्योतिर्धरों की श्रेणी में उन्हें एक विशिष्ट इयत्ता और अस्मिता प्रदान करती है । उन अतिप्राकृतिक तत्वों के साथ ही उनके व्यक्तित्व की वह भव्यता और उत्तुंगता उभर पाती है, जिसके प्रभामंडल से वलयित होकर वे लोक-हृदय और काव्य में प्रतिष्ठित हैं । दूसरे, अतिप्राकृतिक फिनॉमनन को टालना आज के टू-डेट ज्ञान-विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में अवैज्ञानिक लगता है। क्योंकि भौतिक विज्ञान और मनोविज्ञान के क्षेत्रों में आज अतिप्राकृतिक घटनाएँ और अतीन्द्रिय अनुभव, वैज्ञानिक खोज और अध्ययन के विषय बन चुके हैं। इस हद तक कि अन्तश्चेतना के मूल उत्स की तलाश में, इन अतिप्राकृतिक तत्वों को अनिवार्य 'डाटा' के रूप में ग्रहण किया जाता है । और भीतरी अन्तरिक्ष तथा मनुष्य के चरम 'आत्म' की यह खोज, आज इतनी महत्वपूर्ण हो गई है, कि मनोवैज्ञानिक इसी अन्वेषण की राह एक सर्वथा रूपान्तरित नये मनुष्य की सम्भावना को तलाश रहे हैं । उपसर्गों में आने वाली अतिप्राकृतिक मदालतों का मैंने भी अन्वेषणात्मक उपयोग ही अपनी रचना में, अपने ढंग से किया है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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