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....ओ समस्त की संचारिणी शक्ति काम, तुम मुझसे अन्य कोई नहीं । तुम भी केवल आत्मा ही हो। और समस्त के प्रकीर्णक और प्रज्ञाता, विकीर्णक और विज्ञाता गरुड़देव, तुम भी मुझसे अन्य और कोई नहीं । अन्ततः केवल आत्मा ही हो । आत्मा, जिसकी ज्योति, शक्ति और सम्भावना का पार नहीं । ...
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... केवल मैं, केवल मैं । केवल आत्म केवल आत्म । ऊर्ध्वातिऊर्ध्व मण्डलों में उड्डीयमान ।
...और ऊपर, और ऊपर, और ऊपर। आकाश से भी परे का आकाश । महाशून्य में एकाएक प्रस्फुरित नीलिमा का निलय । तच्चिन्मयो नीलिमा ।' उसके गहन में विश्रब्ध एक ज्योतिर्वलय । उसमें पद्मासनासीन, एक आत्मलीन पुरुषाकृति । जिसमें सारे रंग एक साथ तरंगित हैं । और वह रंगारंग तरंगमाला, एक अगाध श्वेतिमा में निर्वापित है । अविभाज्य समय में, तरंगित - निर्वापित: निर्वापित-तरंगित । अकम्प श्वेत, एकाकी लौ । शिव, सदाशिव, परशिव । परात्पर शिव । मैं ।
.... मैं मैं मैं मेरे अतिरिक्त कहीं और कोई नहीं ।
.... मेरे पैरों को जकड़े हुए काल का महाव्याल । आठों कर्मों की साँकलें अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ झनझना रही हैं। मुझे और भी कस रही हैं । "". छटपटा रही हैं, तड़तड़ा रही हैं, टूटते टूटते मुझे और भी अधिक जकड़े चली जा रही हैं ।""
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... मुझे पुद्गल के उन विक्षुब्ध पाशों पर दया आ गई। मेरे ही चैतन्य में से अवरूढ़ राग की ये जन्मान्तरगामी सन्ततियाँ । निर्दोष हैं ये । ये अपना काम कर रही हैं। मैं अपना काम कर रहा हूँ । ये अपने स्वभाव में सक्रिय हैं। मैं अपने चिद्भाव में सक्रिय हूँ । इनका स्वभाव है बाँधना । तो ये बाँध रही हैं। मेरा स्वभाव हैं खुलना, खोलना । तो मैं खुल रहा .हूँ, खोल रहा हूँ ।"
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....मेरे चारों ओर संक्षुब्ध, फूत्कारते व्यालों के फणामण्डल । तड़क, कर टूटती शृंखलाओं की झंकारें । और ठीक तभी मैं अपने पीछे, असीम अतीत में एकाग्र देख रहा हूँ । महाकाल की असंख्य पुंजीभूत तिमिर - रात्रियाँ | अन्धकार की परात्परगामी खाई । उसकी घोर अँधियारी कगार । तमस का घहराता काला सागर । तमिस्रा के आरपारगामी जंगल । कज्जल- गिरियों की उत्तुंग श्रेणियाँ । उनमें संघटित होती वज्र चट्टानें । मेरी हड्डियों में अनुभूत ।
.. विशुद्ध लोह की पर्वत - साँकलें । चुम्बकीय शक्ति के वर्तुलों में परस्पर संघर्षित । विशुद्ध मोहनीय कर्म की सरणियाँ । मेरे पीछे छूटते पदाघातों से टूटती हुईं। फौलाद के बेशुमार गोपुरम् — एक में से एक निकलते ही जा रहे,
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