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________________ ३३२ हिमानी शून्यता व्याप जाती है । जनम जनम के मिले और ब्याहे नर-नारी काल के निश्चिन्ह, अबूझ समुद्र तट पर अकस्मात् टकरा जाते हैं। फिर प्रचण्ड तरंगाघातों से अगम्य किनारों पर फेंक कर, बिछुड़ा दिये जाते हैं । अयोग्य, अक्षम, पापात्मा सुख के स्वर्गों में बिलखते हैं । सच्ची, प्रेमल, सहृदयी आत्माएँ अभाव में दम तोड़ती हैं। प्यार की एक बूंद को तरसती घुट-घुट कर मरती रहती हैं । सौन्दर्य की सूक्ष्म पारद्रष्टा आत्मा के लिये सौन्दर्य आकाश-कुसुम हो रहता है। जड़, भावहीन, हिंस्र वासनाकुल भुजाओं में, सावित्री-सी कुमारियों की स्वप्न - संवेदनाएँ आजीवन तिल-तिल जलती, गलती, घुटती रहती हैं । ज्ञानतेज से उद्भासित सारस्वत आनादृत, उपेक्षित वीरानों में खो रहते हैं । मूर्ख अज्ञानी, भाव- सम्वेदनहीन धन कुबेर सरस्वती की वीणा को अपनी सम्पत्ति से ख़रीद कर उसे अपनी प्रतिष्ठा की राजसभा में प्रदर्शन की वस्तु बना देते हैं । एक अन्धी बाधा की बर्फानी पर्वतमाला, जो चेतना के तमसांध समुद्र की गहराइयों में छुपी रहती है । क्षण-क्षण, मनुष्य की प्रगति की राह में अनेक निष्कारण अबूझ कुण्ठाएँ, अवरोध, घुटन के अतल खोलती रहती है। इत्रसुवासित रेशमीन, मंदु परों के लिहाफ़ में एकाएक जाने कहाँ से उल्लू बोल उठते हैं, और गृद्ध टूट पड़ते हैं । बिछोह, अभाव, शोक-संत्रास के ज्वालागिरि फूट पड़ते हैं । ““अहो, यह अन्तराय कर्म का आश्रव - लोक है, जहाँ कोमल, ऋजु-सरल नदी की श्वेत धारा के भीतर अज्ञात भुजंगमों की बाँबियाँ छुपी हैं । ... कार्मिक विश्व की बुनियादों में उतरा। उसकी जड़ों में सरसराया । उसके रक्ताक्त मोहों और लोहों से सीधा टकराया। उसके सारे आत्मघातक दबावों से सीधा गुज़रा और जूझा। और देखता हूँ कि, सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र्य से आगे की है यह चेतना स्थिति । अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान से आगे की है यह क्रियात्मिका ऊर्जा | सृजनात्मिका अभीप्सा । जो केवल ध्यानसमाधि में देख और जान कर ही तुष्ट नहीं हो सकती । समाधान नहीं पा सकती । केवल विश्रब्ध होकर चैन नहीं ले सकती। जो कर्मों के अड़ाबीड़ जंगलों में स्वयम् धँस कर उनके साथ उलझती है, जूझती है । और यों उनके मूलों तक जाकर उनका भेदन, उत्पाटन और भंजन करती है । ...कर्म चक्र के दबावों और टकरावों को सीधे झेले बिना आत्म- मुक्ति कैसे सम्भव है ? जीवन-जगत की सारी संश्लिष्टताओं और जटिलताओं में से, अपनी सम्पूर्ण सम्वेदना और संचेतना के साथ गुज़रे बिना, कैसे उन्हें सम्पूर्ण जाना और जिया जा सकता है। सृष्टि प्रपंच के मूल स्रोतों में सीधे स्वयम् Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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