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________________ ३२९ .."एक अविरल मोहिनी का घनसार कृष्ण-नील संसार। कभी नीरन्ध्र अन्धकार का अथाह गहराव । कभी उसमें आशीविष सर्प की आँखों से प्रस्फरित, अचूक नील सम्मोहन. और प्रकर्षण के हिल्लोलन । एक ऐसा भंगुर दोलायित मार्दव, जो चेतना को विपल मात्र में अपने भीतर आत्मसात् करके, अपनी अन्तर्तम जगती में खींच ले जाता है। यहां अति सुरम्य गहरी हरियाली अरण्यानियों का अपार प्रसार है। उसमें सुगन्ध-निविड़ भीनी माटी की अद्भुत ऊष्मा और शीलता है। असंख्य जुगनुओं की टिमटिमाती आंखों से इसके अन्तराल व्याप्त हैं। केवड़े की कटीली सुगन्धाविलता में, जाने कितने ही विवर खुले हैं। उनके भीतर, राशिकृत सर्प एक भयावह संकुलता और ग्रंथिलता के साथ एक-दूसरे में गुत्थमगुत्था हो रहे हैं। वे ऐसी अग्निम मणियाँ उगलते हैं, जो पल मात्र में विराट् अग्नि-पटल हो कर स्वयम् उन्हें ही भस्म कर देती हैं। वे और भी तीव्रता से अपनी राखे में अनुबन्धित हो कर, नित-नव्य आकारों में, शाखाजाल की तरह. प्रस्फोटित होते चले जाते हैं। माटी, जल और वनस्पति की इन सर्पिल तरल शैयाओं में लिंगों और योनियों का एक तुमुल संघात सतत परिणमनशील है। उस घर्षण में से चैत्र के कच्चे आमों-सी खट-मीठी स्पर्श-गन्ध और रक्त-गन्ध विस्फूजित होती रहती है।"ओह, स्पर्श के संकर्षण और रक्त के कामाकुल संघर्ष-हिल्लोल में से उठने वाली यह मोह-गन्ध कितनी कुंवारी और नित-नव्यमान है। स्वर्ग के सघन मन्दार-वनों की ऊष्माकुल शीतलता। पावस की रात में उमसती, रात-रानी के फूलों की प्राणहारी गन्धाकुलता । रक्त और परस के इसी मोह-मदनाविल निरन्तर संघात में से अनवरत प्रवाहित है संसार-परम्परा, जन्म और मृत्यु का एक अन्तहीन सिलसिला।"ओह, तो यही है मोहिनी कर्म का वह आश्रव-लोक, जो हमारे दर्शन और ज्ञान को कृष्ण, नील, कापोत बादलों के सदा बदलते पर्यों से आवरित किये रखता है। जहाँ देखना और जानना मात्र जुगनुई आँखों की भूलभुलैया है। जहां देख कर भी हम कुछ नहीं देखते, जान कर भी हम कुछ नहीं जानते । दृग्बोध नयनः सोऽअयमज्ञान तिमिराहतः । जानान्नपि न जानाति, पश्यन्नपि न पश्यति ।। ..और सर्पजाल-ग्रंथिल वह शैया, उत्तरोत्तर फैलती हुई, दृकबोध से पार असीम हो उठी है। उसे देखते-देखते चेतना भय से मच्छित होती जा रही है। छिन्न-भिन्न होती आंखों के तड़कते बिल्लौर का एक सैलाब। पहचान और लगाव की रंग-बिरंगी कांच-खिड़कियों का अचानक तड़तड़ा कर टूट जाना। प्रणय के निविड़तम आलिंगन में अजनवियत का एक अफाट रेगिस्तान । सम्बन्धों के इन्द्रधनुषी आवरणों में ढंकी परायेपन की खन्दकें। मित्रता, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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