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________________ ३२१ 'मैं भी आया पल्ली, इसी छाती पर सर ढाले तुम्हारी चिता में तुम्हारे साथ जलूंगा । ..." .... और हठात् उस अँधियारे कोने में से सुनाई पड़ा : 'किसके साथ जलोगे चिता पर ? उत्पला वहाँ नहीं होगी । लाश की छाती पर जलोगे ? लाश, जिसकी नियति सिर्फ़ ख़ाक़ हो जाना है । बुज्झह, बुज्झह, सागरसेन ! ' 'मुझे मेरी उत्पला चाहिये ! ' 'उस रूप में अब वह नहीं मिल सकती ।' 'तुम कौन हो ?' 'तुम्हारी आत्मा ! महावीर !' 'भगवन्, आप यहाँ ? कौन · कैसे ... ?' 'प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या ! 'भन्ते, क्या उत्पला की आत्मा में मैं जा नहीं सकता ? ' 'महावीर स्वयम् अपने से यह प्रश्न पूछ रहा है ! ' 'भगवन्, त्रिलोकीनाथ, आप कहीं कैसे अटक सकते हैं ?" 'अटका हूँ, तुम्हारी आत्मा के द्वार पर । और कितना चाहता हूँ, कि मैं तुम्हारा सम्वेदन बन जाऊँ, तुम्हारी आत्मा बन जाऊँ, उत्पला की आत्मा बन जाऊँ । और तुम दोनों मेरे भीतर दो जोतों की तरह आलिंगित हो जाओ । लेकिन.... 'भगवन्, आप और लेकिन ?' 'देख रहा हूँ, जानने-समझने से आगे तुम्हारे भीतर मेरी गति नहीं है, सागर ! एक पूर्ण सहानुभूति है । समवेदन है । लेकिन अन्तर्वेदन नहीं । तुम्हारे भीतर वेदन नहीं कर सकता । तुम्हारे साथ तुम्हारे भीतर मैं सहन नहीं कर सकता। हम सब अलग-अलग । अकेले । असंख्य द्वीप आत्माओं के । बीच में है केवल ज्ञान का जल । अज्ञान के अँधेरे से ढँका हुआ । ज्ञान की इन लहरों में हम एक-दूसरे को आरपार देख सकते हैं । पर एक-दूसरे में आरपार तदाकार नहीं हो सकते । 'कोई किसी का शरण, आधार नहीं हो सकता यहाँ, शरण ही एकमात्र नियति है, सत्य है ।' 'लेकिन...' 'महावीर, और फिर लेकिन ?' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only सागर ! स्वयम् www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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